Tuesday, July 5, 2011

कैसे रिझाऊँ कान्हा तुम्हें



आज एक अंतिम पृष्ठ
कल एक नई शुरुआत
आभार तुम्हारा प्रियतम
जो हर जगह रहे हो साथ

सांवरे की मुस्कान ऐसी
जैसे सबसे सुन्दर प्रभात
कैसे रिझाऊँ कान्हा तुम्हें
पूछ रहा जोड़ कर हाथ

चलो यह भी बहुत अच्छा
करता रहूँ नित्य तुमसे बात

जय श्री कृष्ण
२६ जून २००८ को लिखी
५ जुलाई २०११ को लोकार्पित            

2 comments:

Rakesh Kumar said...

आपकी बातें बहुत प्यारी प्यारी लगती हैं.
कान्हा को रिझाने में न्यारी न्यारी लगती हैं.
शुरू से अंत तक एक खुशगवारी लगती है.
लगता है कि बातें आपकी, हमारी लगती हैं.


बोलो महाराजाधिराज 'कान्हा'जी की जय.

Rakesh Kumar said...

लगता है आप अभी भारत यात्रा पर ही हैं.बहुत समय से कोई समाचार नहीं मिला.

आपके लौटने की इंतजार में

आपका 'छोटा महाराज'