Tuesday, September 20, 2011

जिससे कण-कण दीप्त निरंतर


मन आनंद अपार उतारे
कान्हा की जैकार पुकारे
जिससे कण-कण दीप्त निरंतर
हमको रहना उसी सहारे

साँसों में सपने उजियारे
पहुँच गए कान्हा के द्वारे
मौन मगन मनमोहन की धुन
इसे छोड़ मन कहीं ना जा रे


अशोक व्यास
१० अक्टूबर २००६ को लिखी
२० सितम्बर २०११ को लोकार्पित          

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