कान्हा क्यूं करते हो ऐसा
जग लगता पिंजरे के जैसा
कभी कर्म ही सीमित होता
कभी लगे सीमित है पैसा
कान्हा
जो भी करते हो तुम
उसमें है कल्याण की धरा
टकराहट भी गुरु सरीखी
कर देती है जग को प्यारा
कान्हा
तुम आधार हो ऐसा
कोई नहीं तुम्हारे जैसा
इतनी कृपा करो नंदलाला
कभी न सोचूँ ऐसा-वैसा
अशोक व्यास
२४ अक्टूबर २००९ को लिखी
५ जून २०११ को लोकार्पित
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