मन को पवन की एक
लहर उड़ा ले जाती
सैर कराती
स्वपन दिखाती
संभावनाओं की खेती
करवाती
इस बीच
कान्हा की स्मृति
जाग्रत सतह पर से
सरक जाती
फिर मूल की स्मृति
जब जाग जाती
पुकारता हूँ कातरता से
कहाँ हो, कान्हा मेरे शाश्वत साथी!
जय श्री कृष्ण
२५ अगस्त २००९ को लिखी
१३ जून २०११ को लोकार्पित
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