Friday, September 30, 2011

तुम्हारी बंशी


इस बार कान्हा ने अपनी बंशी अधरों पर नहीं लगाई
उसे दे दी
कहा
'तुम बजाओ'
पर 'मैं'
मुझे तो बंशी बजाना आता ही नहीं
'मैं' कैसे ये साहस कर सकता हूँ
सारा जगत तुम्हारी बंशी सुनना चाहता है कृष्ण


कृष्ण हँसे 
तुम मेरे सामने 'मैं' से चिपके रह कर
मेरी बात न मानने का साहस कर सकते हो
पर मेरे कहे से बंशी नहीं बजा सकते?


अपनी गलती समझ कर
उसने कान पकडे
कृष्ण से कहा 'बंशी' दें

कृष्ण मुस्कुराये

अभी तुम्हारे द्वारा बंशी बजाने का 
समय नहीं आया
पर 'मैं' को छोड़ कर
इस अवसर के लिए
तैय्यारी बढाने का अवसर आया है

"मुझे पकड़ लो न
शेष सब स्वतः छूट जाएगा'


अशोक व्यास
वर्जिनिया, अमेरिका
३० सितम्बर २०११            

Tuesday, September 27, 2011

जय नंदनंदन


मनमोहन आनंद सदन
सुमिरन रस देकर
धन्य करे,
तव कोमल, उज्जवल
दिव्य दरस
मन को श्रद्धा में 
मगन करे,

बजे प्रेम बांसुरी
रोम रोम
सिरहन जागे
पावन करती
जय नंदनंदन
जग सकल करे


अशोक व्यास
२७ नवम्बर २००६ को लिखी
२७ सितम्बर २०११ को लोकार्पित        

Monday, September 26, 2011

रहते सब संसार


कान्हा तो मुसकाय रहे थे
हमहूँ न देखे
मधुर मधुर कछु गाय रहे थे
जीवन के लेखे
दरस किये जब ध्यान पडा तब
महिमा अपरम्पार
कान्हा मुरलीधर दीखते पर
रहते सब संसार


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ नवम्बर २००६ को लिखी
२६ सितम्बर २०११ को लोकार्पित          

Sunday, September 25, 2011

है शरण उसी की नित संबल


श्री कृष्ण प्रभु के चरण कमल
छलके करूणा ज्योति उज्जवल
नित श्याम प्रेम पथ बढे चलो
है शरण उसी की नित संबल 



अशोक व्यास
१३ नवम्बर २००६ को लिखी
२५ सितम्बर २०११ को लोकार्पित    

Saturday, September 24, 2011

गेंद सपनो की



कभी अनुकूलता
कभी प्रतिकूलता
के खेल खिलाता है
इस तरह
कृष्ण बिहारी
हमारा ध्यान भटकाता है
जब लपकते हैं
हम पकड़ने
गेंद सपनो की
वो मुस्कुरा कर
कदम्ब वृक्ष की ओट में
छुप जाता है




अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ अक्टूबर २००६ को लिखी
२४ सितम्बर २०११ को लोकार्पित           

Friday, September 23, 2011

छटपटाती पुकार

 
अर्पण 
समर्पण 
कण-कण
क्षण-क्षण
छल-चंचल
सत्य ओझल
छटपटाती पुकार
आर्त भाव पल-पल
आँगन में श्याम नहीं
मनभावन नाम नहीं
पहुँच गए अमेरिका
वृन्दावन धाम नहीं
अशोक व्यास
२७ अक्टूबर २००६ को लिखी
२३ सितम्बर २०११ को लोकार्पित          

Thursday, September 22, 2011

प्यास अमृत की

जय श्री कृष्ण


मन आनंदित
कान्हा मधुबन
बंशी बाजे
मयूर नाचे
कोयल गाये कुहू कुहू करती

बछड़ा मैय्या से अलग हुआ
भागे कान्हा की ओर

प्यास अमृत की
पाए सहज प्राप्य

कान्हा की झलक
दिखे
उर सुन्दर
सुन्दरतम के दरसन करे

मुस्कान मधुर
मन मोहन की

सब ताप हरे
संताप हरे
गिरिधारी की जय बोल प्रिये
यह आनंद है अनमोल प्रिये


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ अक्टूबर २०११ को लिखी
२२ सितम्बर २०११ को लोकार्पित                 

Wednesday, September 21, 2011

ध्यान मोहन का


अमृत बेल
ध्यान मोहन का
शाश्वत सौरभ
वृन्दावन का

नन्दलाल के
लीलारस में
है आनंद
नित्य दरसन का

अशोक व्यास
१९ अक्टूबर २००६ को लिखी
२१ सितम्बर २०११ को लोकार्पित      

Tuesday, September 20, 2011

जिससे कण-कण दीप्त निरंतर


मन आनंद अपार उतारे
कान्हा की जैकार पुकारे
जिससे कण-कण दीप्त निरंतर
हमको रहना उसी सहारे

साँसों में सपने उजियारे
पहुँच गए कान्हा के द्वारे
मौन मगन मनमोहन की धुन
इसे छोड़ मन कहीं ना जा रे


अशोक व्यास
१० अक्टूबर २००६ को लिखी
२० सितम्बर २०११ को लोकार्पित          

Monday, September 19, 2011

शिखर का आकर्षण


कहूँ न कहूँ
दिखता तो है
मुझको केंद्र बना कर
किरणों का प्रसरण
अलोक संचरण
जैसे जैसे
परिष्कृत होता जाता है प्यार
खुलता जाता है मेरा विस्तार

उदात्त आनंद के शुद्ध क्षण
रसमय कर गया समर्पण
कर रहा हर सांस पावन
उन्नत शिखर का आकर्षण


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ जनवरी २०११ को लिखी
             १9 सितम्बर २०११ को लोकार्पित              

Friday, September 16, 2011

मनमोहन की हर बात मधुर

 
कृपा लिखो मनमोहन की
या कथा लिखो मनमोहन की
आनंद अपार लुटाये है
ये छटा सांवरी चितवन की
मुरली मुख शोभा पाय गई 
झांकी अनंत अपनेपन की

मनमोहन की हर बात मधुर
बहे पवन दिव्य वृन्दावन की 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ अक्टूबर २००६ को लिखी
१६ सितम्बर २०११ को लोकार्पित   

Wednesday, September 14, 2011

उन्नत पथ ध्यान तुम्हारा है


मन भागमभाग करे कान्हा
इत-उत जाए
फिर थक जाए
जो मिले तुम्हारे दरसन में
वह चैन 
कहीं भी ना पाए

तुम गोवर्धन धारण करके 
ज्यूं इन्द्रप्रकोप मिटाते हो
तुम प्रेम पगी मुरली अपनी
वृन्दावन मधुर सुनाते हो

मन को ऐसा वर दो कान्हा
वह करे न
जिस पर पछताए
उन्नत पथ ध्यान तुम्हारा है
इसे शरण
तुम्हारी मिल जाए

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ नवम्बर २००६ को लिखी
१४ सितम्बर २०११ को लोकार्पित       
   

Tuesday, September 13, 2011

न जाने कैसे हरियाली छाई

(फोटो- अशोक व्यास)


उसने दोनों हाथ उठा कर
बहती पवन संग
गगन तक भेजा सन्देश
भेज दो
भेज दो
काव्य सरिता
भाव बीज लगाए हैं

पवन ने सुन कर अनसुना कर दिया
पर अज्ञात ने सुन कर
करूणा बरसाई
न जाने कैसे हरियाली छाई



हर दर तेरा दर है
मेरे श्याम सखा
ध्यान तेरा देता है
चिर आराम सखा

धन्य हुआ पाकर 
सुमिरन रस ओ कान्हा
साथ चले है हर पल
तेरा नाम सखा


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका            

Monday, September 12, 2011

जिसका मन मोहन में तन्मय


मन मोहन की बात निराली
उसके संग चले हरियाली


कृष्ण सखा के साथ निकल ले
मस्ती में सब भुला के चल ले
माखन खाने का अवसर है
बस थोडा स्वभाव बदल ले


मनमोहन के नाम जीत है, नाम उसी के हार
सब कुछ जब उसका हो जाए, हर दिन है त्यौंहार

 
उत्सव साँसों में सुमिरन का, धड़कन में उल्लास
पूंजी पावन करने वाली, श्याम नाम की प्यास


अब तक जहाँ जहाँ संशय है
वहां वहां पर ठहरा भय है
जिसका मन मोहन में तन्मय
वो तो नित्य रहे निर्भय है 




अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ सितम्बर २०११  
  
 

   
   

Sunday, September 11, 2011

नाम तुम्हारा रस भरा


नाम तुम्हारा रस भरा
मिले निरंतर नाथ
सारा जग अपना लगे
ऐसा तेरा साथ


जड़ता से जो मन जुड़े
उसको तुझसे जोड़
चेतन होता हूँ प्रभु
झूठे बंधन छोड़


रता रटाया बोलता
कब फूंकोगे जान
अनुभूति दो प्रेम की 
दो अनंत की तान


यहाँ-यहाँ तक हद मेरी
बैठ गया हूँ मान
कैसे कहूं असीम से
दो दो मुझको ज्ञान



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
(११ जनवरी १९९५ को भारत में लिखी
                  ११ सितम्बर २०११ को लोकार्पित )                

Saturday, September 10, 2011

गर्व तुम्हारे प्रेम का


कृपा तिहारी देख कर
गदगद हूँ भगवान्
 लिखता हूँ आभार जब 
शब्द लगे अनजान


धन मांगूं वो, जो मिले
 बन कर तेरा दास
 जहाँ रहूँ, ऐसे रहूँ 
तुझमें रहे निवास



गर्व तुम्हारे प्रेम का 
 बना रहे यदुनाथ
 तुमको ही जपता रहूँ 
कान्हाजी, दिन-रात



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
 ९ जनवरी १९९६ को जब लिखी गयी ये पंक्तियाँ
भारत में था
 १० सितम्बर २०११ को लोकार्पित

Friday, September 9, 2011

भज गोपाला


भज मन गोविन्द
 भज गोपाला,
नृत्य करे
प्यारा नंदलाला,
 पग पग
मिले सांवरा जिस पथ
चलें उसी पर
ब्रजबाला,

 गा गा श्याम नाम
 मन हर क्षण,
 श्याम मिलन का
कर ले तू प्रण,

 श्याम दरस की प्यास सांस है
जीवन
  श्याम प्रेम की शाला,
  भज मन गोविन्द
  भज गोपाला

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ जनवरी १९९५ को लिखी
 ९ सितम्बर २०११ को लोकार्पित

Thursday, September 8, 2011

समर्पण


मैं 
कान्हा के नाम से
  हर दिन नई खिड़की
खोलता
अपने अन्दर,
वह
वातावरण जगाता,
जिससे हर तरफ
मुखरित 
समर्पण स्वर,

 पर ये 'मैं', जहाँ से
शुरू होती है बात
 हर दिन
 रह ही जाता है साथ 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३१ जनवरी 2006 

Wednesday, September 7, 2011

आकर तेरे द्वार



श्याम प्रभु के साथ में
मौन मलय माधुर्य
सरल स्नेह का सार हो
धरा रहे चातुर्य

हे कान्हा
मैं प्रेम से
करूँ नित्य आभार
 वो पाया 
जो सार है
आकर तेरे द्वार

अशोक व्यास
३१ जनवरी १९९६ को लिखी
 ७ सितम्बर २०११ को लोकार्पित          

Tuesday, September 6, 2011

Jai Kanhaiyya Lal Ki

ppart 2

वही सहारा पूछूं तुमसे

जुलाई १२, १९९५ को भारत में लिखी पंक्तियाँ 
 



क्रीडा करने वाले गिरिधर
    कृपा तुम्हारी है नित सब पर
 
प्रतिदिन लिख कर पत्र
प्रभुजी, 
पता तुम्हारा पूछूं तुमसे
सदा रहे सर्वत्र
 श्याम जो      
   वही सहारा पूछूं तुमसे



छवि तुम्हारी
किसने बांधी
सबको बांधे हो तुम मोहन
सारा जग 
  हो जाए अपना
 जब जागे तुम संग अपनापन


अशोक व्यास, न्यूयार्क     

Monday, September 5, 2011

यह वैभव अपरम्पार


इतने सारे सवाल
जैसे कोई जाल
कुछ ऐसी है
समय की चाल
सन्दर्भों के सूराख
बना देते जंजाल


हर जाल को निकाल
 चेतना की दिव्य उछाल 
आनंद उंडेल कर
शुद्ध बना करती निहाल


यह वैभव अपरम्पार
नित्य आलोक का श्रृंगार
समर्पण का उपहार
सुलभ सीमातीत प्यार


   चलो हर लें यह थकन
 मिटा दें हर शिकन 
   अच्युत का संग जगाएं
  कर लें सतत सुमिरन 

अशोक व्यास
 अप्रैल २००८ को लिखी
 ५ सितम्बर २०११ को लोकार्पित
        

Sunday, September 4, 2011

अमृतमय लीला रस चख कर


सच कहता हूँ नटवर नागर
नहीं छोड़ते तुम अपना कर
पर ये भाव रंग हैं नटखट
विरह गीत गाते घर जाकर 


 तुम करूणा सागर हो गिरिधर
  कृपा तुम्हारी है नित सब पर
सहज तुम्हारे दरसन करना 
 अमृतमय लीला रस चख कर  


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ सितम्बर 2011 
  

Saturday, September 3, 2011

हर समस्या का समाधान


बैठ कर 
उनके पास
मिलता कैसा
अवकाश
थमा देता
जैसे कोई
चंचल इन्द्रियों 
की रास

यह असीम में अडिग विश्वास
सरल लगता जीवन बिना प्रयास


क्या सुनती है
 उनकी सन्निधि में    
  अपने विस्तृत रूप की तान
  कौन देता है आश्वस्ति
की मिल जाएगा
हर समस्या का समाधान 

अशोक व्यास
२० मई २००८ को
 (स्वामी श्री परमानंद गिरिजी महाराज के सामिप्य से प्रकट प्रभाव का शब्द चित्र)  

Friday, September 2, 2011

सहज अमृत गान


नींद में नहीं
जाग कर
विश्राम का
करते हैं आव्हान
विविध दृश्य 
हो जाते
 एक समान

वे हर दिन
आरती उतारते हैं 
 भोर की
देख लेते
 गहराई हर तरह के
 शोर की

मौन ऐसा 
जो विराट तक जाए
उनके भीतर
 सहज मुखरित हो पाए 

 कर लिया है
  सत्य का ऐसा अनुसंधान
   हो जाते, शब्द उनके
 सहज अमृत गान 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० मई २००८ को लिखी
   (स्वामी परमानन्द महाराज के साथ बैठने का प्रभाव)

Thursday, September 1, 2011

अपने अनंत गौरव में


मैं हैरत से देखता हूँ
अपने होने का कमाल
एक कुछ
बिना बदले
बदलता जाता हर साल

इस अपरिवर्तनीय की
बांह पकड़ कर
 क्यूं कुछ कहना 
  क्यूं  कुछ सुनना 
 बस अपने अनंत गौरव में
तन्मय होकर 
रमे रहना

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सितम्बर ३०, २००७ को लिखी
 १ सिताब्मर २०११ को लोकार्पित