Sunday, July 18, 2010

सृजन गंगा किनारे

 
 
 मिलना नहीं
मिलने आने का अहंकार है
या शायद
चुप्पी में कोई शोर की दीवार है

सूचना प्रधान स्पर्श नहीं
भावयुक्त छुअन चाहिए
प्रदर्शन का कोलाहल नहीं
अनुभूति की गुंजन चाहिए

सृजन गंगा किनारे
कण कण से
सांस सांस करती संवाद
देह सारी की सारी
बन जाती ईश्वर की याद

अशोक व्यास
५ दिसंबर १९९४ को लिखी
१८ जुलाई २०१० को लोकार्पित
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श्री कृष्ण कृपा रसपान करने के 
प्रार्थनायुक्त अभिव्यक्ति सुमन 
आप के साथ बांटने के इस पावन क्रम ने हमारे बीच एक अतिरिक्त सेतु बनाया है,
जो आनंद और उत्साह बढ़ने वाला है!
इस ब्लॉग पर अदृश्य रूप में
अपने अपने 'लोक' से मिलने वाले सभी आत्मीय, सहृदय पाठक मित्रों से निवेदन
-भारत यात्रा हेतु प्रस्थान कर रहा हूँ आज
अगस्त के प्रथम सप्ताह में पुनः ब्लॉग सक्रिय होगा
यदि भारत में सम्भावना हुई तो यह 'स्वानुसंधान की रसमय अभिव्यक्ति यात्रा
वहां से भी आप तक पहुँच पायेगी
आप सबको शुभकामनाएं देते हुए
यात्रा के लिए आपकी मंगल कामनाएं अपने साथ मानते हुए
धन्यवाद
सस्नेह -- अशोक
 

Saturday, July 17, 2010

ना करूं स्वीकार कोई दीवार


हे प्रभु
छीन लो यह सहायता सूत्र सारे
आने दो मुझे
मेहनत कर कर के
भंवर के पार

ढूँढने दो मुझे
हर बार
नया हल

यह क्या
कि जाना मुझे हो पार
और
और कोई और चलाये पतवार

ढाल नहीं
तलवार बनाना सीखूं
लेकर तुम्हारा नाम

यह क्या कि सुरक्षा में सिमटा
करूं यात्रा
देख ही न पाऊँ संसार
 
हे प्रभु
आने दो शेर के सामने
तब ही जाऊंगा
नहीं हूँ में सियार
होने तो दूं
जितना हो सकता मेरा विस्तार
पार कर थमाए हुए आकार

हे प्रभु
प्रार्थना यही है
ना करूं स्वीकार कोई दीवार
बहूँ निरंतर
बन प्रेम और श्रद्धा की धार 

अशोक व्यास
३ दिसंबर १९९४ को लिखी
१७ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Friday, July 16, 2010

जीऊँगा तो जानूंगा

(ये कविता २ दिसंबर १९९४ की लिखी है
संबोधित तो विराट को ही है
विराट रूप दिखाने वाले श्री कृष्ण के नाम ही है
पर एक बार पढ़ कर समझ नहीं आयी
दो-तीन बार पढी तब कुछ टिमटिमाया
हो सकता है, आपके लिए पहली  बार में कुछ खुल जाए
हो सकता है कुछ ना खुले
पर इस ब्लॉग रूपी सत्संग में
पधारने, पढने और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करने वाले
सभी आत्मीयों का आभार व्यक्त करने के साथ साथ
अनौपचारिक रूप से आज 
शुभ कामनाएं प्रेषित करने का मन हुआ
विशेष रूप से रविकांतजी, प्रार्थना जी, वंदना जी, सुशील कान्तजी, आचार्य उदय जी
और उड़न तश्तरी ब्लॉग वाले 'समीर लाल' जी के प्रति विशेष आभार 
 
मंगल हो, कल्याण हो, उत्थान हो
कान्हा की कृपा से पावन प्रेम रस में नित्य स्नान हो 
पुनः पुनः धन्यवाद-  अशोक व्यास )

लौटाना
स्मृति से
तुम्हारा कहा
नया नहीं करता मुझे
कहना मेरा नहीं होता ऐसे
यों बोलता बहुत है

पर तुम्हारे कहे की आभा
पपड़ी सी उतर जाती
कुछ समय बाद

इस तरह
अपने पर
झूठा अधिकार सौंप तुम्हें
बासी होते हुए

जुटाना है साहस
सहारा लेने से इनकार करने का

तब ही तो जीऊँगा
जीऊँगा तो जानूंगा
एक है
तुम्हारा कहा
मेरे जीवन से


अशोक व्यास
२ दिसंबर १९९४ की लिखी पंक्तियाँ 
१६ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Thursday, July 15, 2010

अमृतमय हो जाए भाल


किसको ध्याऊँ
किसको गाऊँ
अब तुमको मैं
क्या बतलाऊँ
जब तक मैं हूँ
उसे ना पाऊँ
फिर भी खुद को
बहुत बचाऊँ

वो ही है सार
वो ही आधार
भूल उसे 
रोया हर बार,
पर क्या बोले 
तन के तार
खुश होता मैं
सत्य नकार

वह गोपाल
वह नंदलाल
उसका सुमिरन
नित्य संभाल
अमृतमय
हो जाए भाल

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ दिसंबर १९९४ को लिखी
१५ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Wednesday, July 14, 2010

मिलना चलना एक बने जब


लहर वही
जो बना किनारा
चुप में भी
बस उसे पुकारा

वह छू मुझको
गतिमय करता
तट का पत्थर
बनता धारा

छोड़ शेष सब
मिलूँ उसे कब
मिलना चलना
एक बने जब
होना सचमुच 
होना हो तब
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ फरवरी १९९४ को लिखी
१४ जुलाई २०१० को लोकार्पित 



Tuesday, July 13, 2010

हर क्षण कान्हा का रास लगे


श्री कृष्ण नाम लगे प्यारा
बहती आये अमृत धारा
घनश्याम शरण पाई जबसे
अपना अपना है जग सारा
 
मोहन के मीठे वचन मगन 
बंशी दिखलाए दिव्य स्वपन 
नित श्याम सलोना मुख दीसे 
वृन्दावन वासे है अब मन

हर्ष और उल्लास जगे
जब मनमोहन की प्यास जगे
कण कण में आनंद धार बहे
हर क्षण कान्हा का रास लगे
 
प्रेम और विश्वास जगे
मोहन का मंगलवास जगे
हर नाम सुनूं यमुनातट पर
और प्रीत भरा आकाश लगे


अशोक व्यास
२८ नवम्बर १९९४ को लिखी
१३ जुलाई २०१० को लोकार्पित





Monday, July 12, 2010

मुक्त मौन में


शब्द नहीं
स्मृति गाँठ
बाँध अनंत
मंगल केंद्र पर
टिका चेतना
मुक्त मौन में
गहरे गहरे
उतर उतर
करबद्ध पालथी
देख रही
सुन्दर विस्तार
निरंतर


अशोक व्यास
२६ नवम्बर १९९४ की लिखी
१२ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Sunday, July 11, 2010

बिना कृपा के द्वैत सताए


मुझसे बाहर किसे निकालूँ
मेरे बाहर भी मैं ही हूँ
यह अपनेपन की अनुभूति ठहर ना पाए
बिना कृपा के द्वैत सताए

सबमें मैं हूँ
सबसे मैं हूँ 

मगर क्रिया संग बंध कर जितना
खंडित रूप उभरता मेरा
उससे बंध कर
छूट ही जाता
बोध मेरे व्यापक होने का

सब अपनाऊँ
पर ना अपना मर्म भुलाऊँ 
रस ऐसा पाने 
कान्हा के द्वारे जाऊं
 
अशोक व्यास 
१५ मई २००४ को लिखी
११ जुलाई २०१० को लोकार्पित


 

Saturday, July 10, 2010

दिव्य काल की हर अंगड़ाई


कभी कभी सब सुप्त रहे
सन्नाटे में संताप जगे
 
कभी नए संकल्पों के
सृजनशील अलाप जगे

दिखलाते हो 
नित्य धूप और छाँव कन्हाई
तुमसे जाग्रत
दिव्य काल की हर अंगड़ाई 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ मयी २००४ को लिखी
१० जुलाई २०१० को लोकार्पित

Friday, July 9, 2010

फिर नया मौसम उतरता है



घुटा है मौन में
जैसे कोई संताप पिछला
नहीं कान्हा की बंशी
ना कोई पदचाप
या तितली
ये चुप्पी
काटती है
इस तरह 
रह रह के
जाने क्यूं?
कहाँ वो पेड़
जिसकी छाँव में 
बैठे कभी कान्हा
कही बातें
उड़ाया माल संग गोपों के
छक  कर के,
वो मक्खन से भरी बातें 
हंसी 
उल्लास
और वो प्रेम
जिससे सब निखरता था
वो सूरज साथ ले
कान्हा कहाँ जाकर छुपे हो तुम ?

मेरे पांवों में कांटे
हाथ में सूखे हुए पत्ते

ये आंसू 
मिल रहे 
जाकर जो
वृन्दावन की माटी से
कहीं तुम
भीगते होगे
लगे है क्यूं मुझे ऐसा,

लो
अंगड़ाई तुम्हारी याद ने
ऐसे भरी मुझमें
ये क्या जादू है कान्हा
फिर नया मौसम उतरता है

नहीं आभार
ना इस बार हो
कोई शिकायत भी
तुम ही हो
बस तुम ही हो
ये परिचय मेरी पूंजी है
इसे छीने अगर कोई
तुम्ही मुझको बचाना मेरे गिरिधारी

सुरक्षा तुमसे माँगी है
तुम्हे सुमिरन से बाँधा है
बंधे रहना तुम्हे भाता नहीं
पर खेल मुक्ति क
तुम्हारा ही बनाया है
तुम्हें बंधने की चाहत गर नो होती
प्यारे कान्हा जी
तो मुझको क्यूं बनाते
क्यूं सजाते सारी सृष्टि तुम?

अशोक व्यास
मयी १४, २००४ को लिखी
९ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Thursday, July 8, 2010

समाधि सा मौन स्टेशन

 
वह नहीं दिखता
तब भी
होता है वह ही
अनाम, अरूप, निशब्द
सीमातीत मौन में
संचरित होती है
जिसकी आभा
वह बन कर कान्हा
करता है बात
रहता है साथ
सुरभित हो जाते
दिन और रात
फिर वह हँस कर छेड़ता है
कहता है
आओ, पकड़ो 
छू कर दिखाओ मुझे
 
इस तरह
उसके पीछे भाग कर
गुनगुनाने लगता
अंतस में छुपा
सौंदर्य सारा
 
इस अपार आनंन्द की लय में
सहसा होकर लीन
मुग्ध अनुभूति की दिव्य तरंग पर
मूर्तिवत
निश्चल सा
सुनता हूँ
पोर पोर से
कृपा बरखा की रिमझिम
तब
इन अद्वितीय क्षणों में
धमक कर कालातीत कृष्ण
थपकता है मुझे
पूछता शरारत से
'क्या हुआ
भूल गए क्या मुझे?"

कान्हा की समझ है रसीली
जानता है वह
मेरी बोध यात्रा का एक एक पग
 
लो फिर आ रहा 
समाधि सा मौन स्टेशन
अभी कहेगा कान्हा 'अटेंशन'
 
अशोक व्यास 
मयी १३, २००४ को लिखी गयी
जुलाई ८, २०१० को लोकार्पित

 

Wednesday, July 7, 2010

श्याम विरह की प्यारी टीस



एक दो तीन चार
हम तो हैं कान्हा के यार

पांच छः साथ आठ
प्रेम खोल देता हर गाँठ

नौ दस ग्यारह बारा
नहीं कोई कान्हा सा प्यारा 
तेरह चौदह पंद्रह सोलह
कृष्ण कृपा क सजा हिंडोला

सत्रह अठारह उन्नीस बीस
मधुरातिमाधुर मैय्या की टीस

इक्कीस बाईस तेईस चोइस
आलोकित नटवर से चहुँदिस
 
पच्चीस छब्बीस सत्ताईस अट्ठाईस
ऊखल बंधा स्वयं जगदीश 
 
उन्न्त्तीस टीस इकत्तीस बत्तीस 
उन्नत है नतमस्तक सीस

तैंतीस चोंतीस पैंतीस छतीस
श्याम विरह की प्यारी टीस

सैंतीस अडतीस उनचालीस चालीस
नंदलाल माय मन होवे निस

अशोक व्यास
४ मई २००४ को लिखी
७ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Tuesday, July 6, 2010

सोवत कान्हा, जागत कान्हा


 
भेद मिटा सारे
पनघट पर
एक सखी हँस कर यूँ बोली

जल-नभ-पर्वत-हर पथ कान्हा
जप तप तीर्थ हर व्रत कान्हा

लगे लिखाई भी उसकी ही
पढ़े अगर मेरा ख़त कान्हा

पलक किवड़िया खुली रहे री
सोवत कान्हा, जागत कान्हा

अंग अंग से हंसी उडाये
झूठ-मूठ में रोवत कान्हा

अशोक व्यास
१२ मयी २००४ को लिखी
६ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Monday, July 5, 2010

मेरे आत्म सखा



काम दहन करने वाले हो
या हो कामसखा

तुम रसलोभी भँवरे हो
या हो  मेरे आत्म सखा
 
'थाप' सुनूं जब द्वार बजे 
और लग जाए कोई आया
पर बंशी वाले ने तो
आ द्वार सकल हटवाया 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ मई ०४ को लिखी
४ जुलाई २०१० को लोकार्पित 


Sunday, July 4, 2010

नहीं प्रेम पर कोई रोक


1
श्याम नाम के आसरे
चले सो गोता खाय
एक सखी हँस कर कहे
बिन डूबे क्या पाय
 २
 
शब्द परे जा 
ले आलोक
नहीं प्रेम पर
कोई रोक

बहे कृपा का सार निरंतर
चल अनंत स्वर से अंतस भर

जगा नई श्रद्धा के गीत
सुनो मधुर शाश्वत संगीत 

अशोक व्यास
३१ मार्च ०४ और ११ अप्रैल ०४ को लिखी पंक्तियाँ
४ जुलाई २०१० को लोकार्पित
 

Saturday, July 3, 2010

भरो लबालब कृष्ण प्रेम से अपना अंतस



महिमा गाओ बस ठाकुर की
                                करो ना दूजी बात
जो भी बोलो, उससे बोलो
                           नित्य वही है साथ


आनंद की अनुभूति को चखो
उसका स्वाद अपने साथ रखो

बिना किसी को बताये
बिना किसी को जताए
 फल जब पक जाता है
डाली से गिर जाता है
 
भरो लबालब कृष्ण प्रेम से अपना अंतस 
नित्य मौन में सुनो, स्वयं से उसका ही यश
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
२ और ३ मयी २००४ को लिखी कवितायेँ 
शनिवार ३ जुलाई २०१० को लोकार्पित


डाली से गिर जाए

Friday, July 2, 2010

मगन मधुर सब

1
नाम उजागर श्याम सखा का 
मन में हुआ सखी री
यह सुख ऐसा बिरला पावन
हो गई धन्य अहीरी 
 

ताल थपा थप 
               थप थपा थप
कान्हा किसको
         छू जाए कब

हर्षित
उल्लसित
पुलकित
प्रमुदित
करूण श्याम की
कृपा 
तरंगित

यह उल्लास करूण मनभावन
जाग्रत सतत प्रेम का सावन

करे हिलोर अनूठी आभा
ध्यानमयी हर पग, हर गप-शप
ताल थपा थप
             थप थपा थप
छू कान्हा को
                 मगन मधुर सब

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ मयी २००४ को लिखी
२ जुलाई २०१० को लोकार्पित

Thursday, July 1, 2010

जीवन भर माधुर्य रहेगा

 
कृपा दृष्टि से
उठा श्याम ने
ऐसा करतब किया
उठा मुझको 
पहुंचाया छींके तक

पर मटके की ओर
बढ़ा जब हाथ 
तो सहसा
उड़ी मटकिया 
और उसके पीछे पीछे उड़ता
गोल-गोल चक्कर खाता मैं
 झोपडिया में

ग्वाल बाल
हँसते ताली दे
देख रहे थे यह कौतुक

फिर कान्हा के ही संकेत 
रुका मटका
रुक टंगा हवा में मैं भी
पर
 माखन तक
अब भी मेरी
पहुँच नहीं थी

मन ही मन कान्हा ने पूछा 

'अब जो गिरे, फूटे धरती पर
माखन से यह भरी मटकिया
निकले मक्खन,
तुम जो गिरे 
तो क्या निकलेगा?
फिर कान्हा ही बोला हँस कर
प्रेम निकल आएगा तुमसे
पगले तुझमें प्रेम है मेरा
भरा लबालब 
 
मगन ध्यान में
करके मुझको
भाग गए हैं कान्हा के संग गोप-ग्वाल सब 

जान रहा
मेरे हिस्से का मक्खन तो
मुख पर लिपटा है
है इतना माखन कि जिससे
जीवन भर माधुर्य रहेगा

२९ अप्रैल २००४ को लिखी
१ जुलाई २०१० को लोकार्पित