Tuesday, August 31, 2010

जो नाच नचाये है सबको

 
आनंद ताल
नंदलाल संग
नित मुदित प्रेम मन
काल संग

चल झूमे
व्रज वन में डोलें
होवें निहाल
गोपाल संग

जो नाच नचाये है 
सबको
मिल रहे कदम
उस ताल संग

ओ सार सरस
केशव प्यारे
कर कृपा करो
इस साल दंग
 
तुम साथ निरंतर 
हो कान्हा
क्यूं फंसूं 
जगत जंजाल संग

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ जनवरी २००६ को लिखी
३१ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Monday, August 30, 2010

उजियारे मन में अपनापन

 
अमृत बंधन
अनुपम वंदन
नित्य सखा का
नित अभिनन्दन

झूमे तन मन
खुश घर आँगन
बरस रहा है
कृपा का सावन

उसका होकर
कैसी ठोकर
हर कण सुन्दर
हर पग पावन

दिव्य बंधू संग
पुलकित अंग अंग
उजियारे मन में
अपनापन

हँस हँस गा ले
उसे बुला ले
प्रेम लुटाये
नन्द का नंदन

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
 ३० दिसंबर २००६ को लिखी
३० अगस्त २०१० को लोकार्पित

Sunday, August 29, 2010

श्याम प्रेम के बोल

 
भागा-भागी समय की
कैसे करूँ विचार
ध्यान धरे के वास्ते
बंद चाहिए द्वार

मन मोहन की चरण रज
माथे दई लगाय
ध्यान ज्ञान आवे नहीं
पर आनंद रस पाय

भक्ति कृपा जगदीश की 
अनुभूति अनमोल
बोले जा मन नित्य तू
श्याम प्रेम के बोल

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ दिसंबर ०६ को लिखी
२९ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Saturday, August 28, 2010

चल श्यामसुंदर की बात करें

 
चल श्यामसुंदर की बात करें
लीलारस में दिन-रात करें
 
जिसमें शाश्वत सुख मिल जाए
ऐसे अनुभव का साथ करें

वो दिव्य सुधाकर दामोदर
वो श्याम मनोहर, मुरलीधर

मंगलमय चेतन अपना कर
चित में अनुपम आल्हाद भरें

चल श्याम सुन्दर की बात करें

अशोक व्यास
८ अप्रैल २०१० को लिखी
२८ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Friday, August 27, 2010

हर पल में दीखे मनमोहन


गीला स्पर्श घनश्याम का
स्नेह निर्झर हरिनाम का

चहुँओर छाया उसका नर्तन
मुरली आलोक छू पाये मन

वह श्याम सलौना मन भाये
हर रोम कथा उसकी गाये

उल्लास भरा नन्दलाल मिले
नित श्याम नाम की ताल खिले

जय कृष्ण कृष्ण
हरी कृष्ण कृष्ण

नित कृष्ण कृष्ण की तान राहे
कुछ ओर ना मुझको भान राहे

हर सांस वही, हर कर्म वही
है शब्द्सुधा का मर्म वही

हर पल में दीखे मनमोहन
मैं एक धार को करूँ नमन 

अशोक व्यास
१४ जनवरी १९९५ को अहमदाबाद यात्रा के दौरान लिखी गयीं 
२७ अगस्त २०१० को लोकार्पित 


Thursday, August 26, 2010

बढे श्याम से प्रीत


श्याम छवि पढ़ पढ़ लिखूं
नित्य श्याम का नाम
नित्य नई उसकी छवि
नया लगे यह नाम

श्याम चेतना तान पर
छेड़े धुन नवनीत
सुनूं भरा आनंद में
बढे श्याम से प्रीत

मुरली वाले की कृपा
कह सकता है कौन
जो भी सोचे बोलना
पाये मंगल मौन

अशोक व्यास
२७ नवम्बर १९९४ को लिखी
२६ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Wednesday, August 25, 2010

रोम रोम में कान्हा गाये


वह उमंग है
वह तरंग है
गाता वो ही
अंग अंग है

उसकी धुन में
एक लगे सब
सुन्दर, मधुमय
उसका रंग है


वह अद्भुत आनंद बिछाए
कण कण उसका ध्यान कराये 

मुग्ध हुआ महसूस करूँ मैं
रोम रोम में कान्हा गाये 
अशोक व्यास
७ मार्च १९९५ को लिखी
२५ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Tuesday, August 24, 2010

खिलेगा मौन में नाम तुम्हारा


वहां से हिलते ही
बिखर जाता
दृश्य,

खो जाते
बांसुरी, गायें, मोरपंख

वह
हंसता तो है
सूरज में

गाता भी है
पवन में,
पंछियों की बोली में
पर
ढूंढता हूँ
उसके प्रेमद्वार की चाबी
खा लेने
ढेर सारा 
आनंद माखन
कृष्ण!
ओ कृष्ण!
पुकार कर कृष्ण नाम
भीगती हैं जड़ें
तना नई आश्वस्ति ले
पहुंचेगा फलों तक
 
टपकेंगे रसीले फल

नई नई तरह से
खिलेगा मौन में
नाम तुम्हारा

अशोक व्यास
४ मार्च १९९५ की लिखी
२४ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Monday, August 23, 2010

प्रेम प्रवाह शब्द !

 
ठहरो शब्द
छू लो उसे
खो जाओ उसमें
मिट जाए शोर तुम्हारा
उमड़े स्वर्णिम शांत धारा

तोड़ कर
आकार अपना
बह निकलो
स्वतः ही
उसका गान करती नदी से
निश्छल
निर्मल
कल कल
खनकाते
आनद सरल

प्रेम प्रवाह शब्द !
तुम ही
चेतना हो
प्राण हो

जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास
३ मार्च १९९५ को लिखी
२३ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Sunday, August 22, 2010

रस श्याम अनुराग का


वह
जो सर्वत्र है 
उसको प्रणाम
पत्र लिखता
अपनापन छूने
हर दिन उसकी नाम

हे कृष्ण
हे गोविन्द
हे गोपाल,
गुंजायमान करों
ह्रदय में
भक्ति ताल,

रस श्याम अनुराग का
छ्लछ्लाये
आनंद नगरी में बे सुध
मुझे भगाए
श्याम चर्चा में मन
इतना रम जाए
श्रीहरि सुमिरन बिना 
कुछ और ना भाये 

अशोक व्यास
२६ फरवरी १९९५ को माउन्ट आबू में लिखी
रविवार, २२ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Saturday, August 21, 2010

श्री हरी कृपा

 
शब्द नहीं
चरण चिन्ह 
श्री हरी के

कृपा कर
श्याम प्रभु
मन उपवन से
निकले हैं
अभी

मंगल
सुन्दर
सूर्य जगा है

नमन 
प्रणाम
जय जय
घनश्याम

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ जनवरी १९९५ को लिखी पंक्तियाँ
२१ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Friday, August 20, 2010

कृष्ण नाम की नगरी है

 
कृष्ण नाम की नगरी है
प्रभु प्रेम से भरी गगरी है

चलूँ छलकता प्यार लिए
नमन हज़ारों बार लिए

घट-घट व्यापी का अवलंबन
कृपा उसी की सारा जीवन 
बहूँ , उसी का सार लिए
उसी दिशा की धार लिए
जिससे
पग पग प्रकट हुआ वह मुस्काये
जिससे
पग पग कृष्ण प्रेम रस गहराए 

जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास
१२ मार्च १९९५ को लिखी 
२० अगस्त २०१० को लोकार्पित
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Thursday, August 19, 2010

जब भी डूबूं श्याम में

पांच दोहे 
 
1
भजे कृष्ण मन रात-दिन
दो ऐसा वरदान
नित्य निरंतर सांस में
रहे कृष्ण का ध्यान
 
2
कृष्ण नाम ले संग में
देखूं सारे रंग
काल खिलाये प्रेम से
उत्सव हो या जंग
 
3
कृष्ण कृपा की आँख से 
देखूं जगत बाज़ार
हर एक कण उल्लास है
हर एक क्रिया में सार
 
4
मोहन की धुन चाहिए
और ना कोई गीत
पांच सखी घूमो वहीं
जहाँ जहाँ है मीत
 
5
जब भी डूबूं श्याम में
बढ़ती जाए प्यास
सारी धरती में जगे
ज्यूं आनंदित रास


अशोक व्यास
४ फरवरी १९९५ को लिखे दोहे
१९ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Wednesday, August 18, 2010

सुमिरन ज्योत्सना

                                        (चित्र- ललित शाह)
 
उतरने दो शब्द
उजाला
गाओ
आनंद रस 
फूटे 
अनंत
गाये
रोम रोम से

मधुर मानस
सुमिरन ज्योत्सना
में आल्हादित

बहे समीर
एक वह
खिले क्षण क्षण
खिलता जाए
पल प्रति पल
सुनूं चेतना से उसे
प्राण है
मौन जिसका
जीवन जिसके शब्द
उस आनंद का रास
नृत्य करूँ में भी
वह होकर
शांत सरल
सरस
एक आलाप
एकत्व
विस्तार
अपने पार
घुला सब में
मंगल स्वरुप
इसको छू लूं
मैं को भूलूँ 

अशोक व्यास
१ फरवरी १९९५ को लिखी कविता
आज १८ अगस्त २०१० को लोकार्पित करते हुए बहुत रसीली लगी
अहा!

Tuesday, August 17, 2010

अर्पित


रोज अलग पकवान बना कर
प्रभु को भोग लगाऊँ

पर सब वनस्पतियाँ उसकी हैं
ये तो भूल ही जाऊं

मैं प्रभु का हूँ
मेरा सब कुछ अर्पित उनको

तरह तरह से
अपने मन को नित यह याद दिलाऊँ 

अशोक व्यास
२ दिसंबर १९९४ को जब लिखी थी, कन्याकुमारी की यात्रा पर था
आज १७ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Monday, August 16, 2010

सेवा में श्रीकृष्ण की


मैं ही क्यूं ढूंढूं सदा, उसके दर की राह
कान्हा को भी तो कभी, हो मेरी परवाह 
(१६ अगस्त २०१० को लिखी पंक्तियाँ)
पहले २ फरवरी १९९५ में लिखा था
'लौटूं उसके द्वार पर, ढूंढ रही हूँ राह
होगी कान्हा को कभी तो मेरे परवाह 

सम्बन्ध हो तो रूठने- मनाने, दोनों का खेल ठीक है
सम्बन्ध है, इसको पहचानो, यही गुरु की सीख है 
(१६ अगस्त २०१०)
सेवा में श्रीकृष्ण की, सुन्दरतम के साथ
अहा धन्य वो, जो नहीं, जाने दूजी बात

कान्हा प्रीती का सखी, चखा मुझे भी स्वाद
एक-एक पग तीरथ लगे, ले कान्हा की याद

मनमोहन प्रियतम मेरा, नित्य पुकारूं श्याम
जानूं बस इतना सखी, मैं सांसों का काम 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
(२ फरवरी १९९५ को लिखी कवितायेँ)

Sunday, August 15, 2010

सांस सांस बांसुरी

                                                 (चित्र- ललित शाह)

शब्द पात्र है
भरता हूँ अमृत
मिलता जो
ह्रदय में
धर जाता 
खेल करता
कान्हा
 
 
देह छिद्रों में
किस दबाये
किससे
मधुरता बहाए 
फूंक मारने वाला
रहस्य ना
बताये
सांस सांस
बांसुरी
बजती जाए


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 

७ जनवरी १९९५ को बंगलौर में लिखी पंक्तियाँ
१५ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Saturday, August 14, 2010

बहुत अच्छी बात है





प्रभु! 
एक दृष्टा सा है जो मेरे भीतर 
घुलने नहीं देता मुझे ध्यान में तुम्हारे

थपथपाता कर पीठ
कह देता
"बहुत अच्छी बात है
प्रभु को याद करने बैठते तुम"

इस तरह
करके प्रशंसा
तुम्हारे स्पर्श से
दूर कर देता 
ये मुझको

क्या करुं
कैसे
तुम्हारी ध्यान गंगा में
उतर
मैं भी 
वह लहर बन पाऊँ
जो बढ़ती है छूने चरण तुम्हारे

१० जनवरी १९९५ को लिखी थी मुंबई में
१४ अगस्त २०१० को कृष्णार्पित है न्यूयार्क से

Friday, August 13, 2010

आनंद आल्हाद


खेलना है
सांवरे के संग
उसकी ओर भागे
अंग-प्रत्यंग

कान्हा की ओर दौड़ने का उल्लास
सुन्दर गतिमान स्थिरता में निवास

गूंजे मुरली की निर्मल तान
चेतना में गाये आनंद ध्यान

रोम रोम सुने कान्हा का नाद 
पोर पोर में झरता आनंद आल्हाद 


अशोक व्यास 
१७ दिसंबर १९९४ को लिखी 
१३ अगस्त २०१० को लोकार्पित 

Thursday, August 12, 2010

तेरे होने को जिए बिना




मैं नहीं हूँ
बस यही सीखना है

तू है
तू ही तू है

रमा कर यह बोध
बैठूं, सोऊँ, चलूँ या भागूं

एक सा आनंद
अपने से प्रकट होता 
विस्तृत बढ़ती आभा 

तू है
तू ही तू है

तेरे होने को जिए बिना 
पतझड़ का पत्ता हूं मैं

गिरने दे, बिखरने दे
संवरने दे
जड़ो से तने तक आते विश्वास में 

तू है
तू ही तू है

पवन गीत में
सुन सुन तुझे 

झूमूं, गाऊँ 
बस इतना चाहूं 

मैं नहीं तू
तू है
तू ही तो है

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 

१४ दिसंबर १९९४ को लिखी कविता
१२ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Wednesday, August 11, 2010

नए लगते हैं कहे हुए शब्द



ईश्वर!
गुफा में नहीं
बीच लोगों के
मिलना है तुमसे
इस तरह कि
कोई स्वर
कोई आघात
तोड़ ना पाए
मेरा तुम्हारा साथ


ईश्वर!
भला क्या मिले तुम्हें
मेरी प्रार्थना, याचना, समर्पण से

मिलते मुझे ही
गति, तृप्ति, आनंद

ईश्वर!
माँ के बाल गूंथते बच्चे सा
मैं नन्ही समझ की कलम से
तुम्हारी हथेली पर
रच देता कुछ भी

सहते
उत्पात मेरा
मुस्कुरा कर
दयालु तुम

ईश्वर 
नाटक नहीं
परदे के पीछे से
देखनी है
पूरी तैय्यारी
मेक-अप, मंच- सज्जा,
ध्वनि-प्रकाश व्यस्था,
पात्रों की असलियत
 
ना ईश्वर
दर्शक-दीर्घा से नहीं
पास बैठ सूत्रधार के
देखना है अब
नाटक तुम्हारा

ईश्वर
बात हो चुकने के बाद
बैठ मौन चादर पर
नए लगते हैं
कहे हुए शब्द
सुनता हूँ कुछ देर
यह जो नयापन
क्या इसे
बढ़ा नहीं सकते तुम ईश्वर


अशोक व्यास
४ दिसंबर १९९४ को लिखी पंक्तियाँ
११ अगस्त २०१० को लोकार्पित, मेरी विशेष प्रिय कविताओं में से एक


Tuesday, August 10, 2010

बहे प्रेम सागर अविराम


हर दिन देखूं 
बाट तुम्हारी
तुम संग 
आनंद किरणें सारी 
उतर रहे आल्हाद लिए तुम
सत्य की स्वर्णिम याद लिए तुम

सांस सांस में 
करे उजाला
मैं गाऊँ
आये नंदलाला

कहे कोई 
गोकुल का ग्वाला
गायों का
अनुपम रखवाला

रक्षक, स्वामी
अन्तर्यामी
बनूँ तुम्हारा
मैं अनुगामी

गा गा 
राधे कृष्ण मुरारी
सुन्दर कर लूं 
धरती सारी

बहे प्रेम सागर अविराम
कृष्ण सखा को कोटि प्रणाम


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ दिसंबर १९९४ को लिखी
१० अगस्त २०१० को लोकार्पित

Monday, August 9, 2010

आनंद के पुल से


ईश्वर
मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ
मौन में नहीं
शब्दों में
एकांत में नहीं
संसार में

मैं चाहता हूँ
धडकना
तुम्हारे प्रवाह में
'हर लहर तुम्हारी है'
बात ये
आये जैसे अनुभूति में मेरी
छू दो वैसे मुझे तुम
ईश्वर
तुम्हारे होने से हूँ मैं
तो कहीं
मेरे होने से हो तुम भी तो मेरे लिए

ईश्वर
पुकारता हूँ तुम्हें मैं
सुनो
सुन कर जताओ मुझे
कि सुना है तुमने

आनंद के पुल से
निरखू मैं
आभा तुम्हारी

गतिमान हो जाऊं
ठहरे ठहरे
बढ़ें तुम्हारी ओर
लहरें समर्पण की
इस गतिमान स्थिर क्षण के मौन में
आर-पार हो 
अपने से
अपार हो जाऊं 
मैं भी
तुम्हारी तरह,
 
ईश्वर
मेरे ईश्वर
मेरे प्यारे ईश्वर
मेरे प्यारे सखा ईश्वर


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० दिसंबर १९९४ को भारत में लिखी पंक्तियाँ
९ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Sunday, August 8, 2010

अनंत पथ से बोलना है


भ्रमर आते हैं
कृष्ण लीला गान सुनाते हैं
धन्य हैं वे
जो तन्मय हो जाते हैं

एक नन्हे अंकुरण में पूरी सृष्टि गाती है
धन्य हैं वे आँखें, जो सुन्दर गति पर ठहर जाती हैं

लिखना रास्ते खोलना है
अनंत पथ से बोलना है

बोल से अबोल
मोल से अनमोल
अमृत-चिंतन
क्षण-क्षण ढोलना है

मैं विस्तार अपनाऊँ
स्वयं विस्तार बन जाऊं
अनाज की बालियों में
ऊर्जा बन कर गाऊँ

प्रेम खिलाऊँ 
आनंद लुटाऊँ
हर विवाद में
शांति सार बहाऊँ
 
अशोक व्यास, न्यूयार्क 
३ दिसंबर १९९४ को भारत में लिखी पंक्तियाँ
८ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Saturday, August 7, 2010

सबक प्रेम आनंद का


(१९९४ और १९९५ में आकाशवाणी, जोधपुर से L T C लेकर मैं और मेरा मित्र लक्ष्मण व्यास
अपने अपने परिवार के साथ दक्षिण यात्रा पर गए थे, दोनों के बच्चे छोटे छोटे थे
१६ बरस बाद, बच्चे बड़े हो गए हैं
पर १ जनवरी १९९५ को विवेकानंदपुरम, कन्याकुमारी में लिखी गयी इन पंक्तियों
को पढ़ते हुए लगता है, ये पंक्तियाँ अब भी मुझसे बड़ी हैं, 
प्रेम और मंगल कामनाओं से साथ, आपके साथ बांटने का आनंद ले रहा हूँ)

हर दिन लिख कर
पक्का करता
सबक प्रेम आनंद का,
नित उसके सुमिरन में रमता
जो है
लाला नन्द का,
 
हर दिन श्याम नाम का सिंचन 
निर्मल, सुन्दर, उज्जवल हो मन

स्वर बन पाऊँ 
मैं भी कोई
दिव्य प्रेम के छंद का,
हर दिन लिख लिख
पीता हूँ मैं
सबक प्रेम आनंद का

वो ही प्यारा
वो ही न्यारा
कृष्णमयी
हो पाऊँ सारा

भंवरा बन कर पाता जाऊं
स्वाद प्रेम मकरंद का
हर दिन लिख कर पक्का करता
सबक प्रेम आनंद का
अशोक व्यास
७ अगस्त २०१० को न्यूयार्क, अमेरिका से लोकार्पित

Friday, August 6, 2010

अर्पित क्षण क्षण

 
देना प्रभुजी
नव स्पंदन
खिले नया नित
मेरा वंदन
क्रीडा निरखूँ
श्याम आपकी
गाऊँ जय जय
देवकी नंदन

चेतन सुमरिन हो 
सुखदायक
सांस सांस तुम
सदा सहायक

देखूं, कण कण
कृपा तुम्हारी
जानूं तुम हो
सृष्टि सारी

अर्पित क्षण क्षण
मानस चन्दन
जय कान्हा
जय देवकी नंदन

अशोक व्यास
२८ दिसंबर १९९४ को लिखी
६ अगस्त २०१० को लोकार्पित

Thursday, August 5, 2010

प्यार रहे आधार निरंतर

 
यह एक द्वार है
मंदिर का
खड़ा यहाँ
भीगे नयनों से
कृष्ण नाम की सुन्दरता में
झूम रहा मन
देख रहा हूँ

शब्दों की वीणा 
थामे मैं
उसको सौंप अंगुलियाँ अपनी
अंतर्मन का कण कण देकर
भक्ति भाव धुन 
मांग रहा हूँ
 
सांस लिखे 
आभार निरंतर
सुमरिन की रसधार निरंतर
 
आनंदित अनुनाद
बना मैं
जीता
जीवन सार निरंतर

कृष्ण प्रेम की ज्योति जगाता
प्रभु के चरण रहे नित माथा
है उसका
उपकार निरंतर
जगे भक्ति का
ज्वार निरंतर
कृष्ण नाम से
प्यार निरंतर
प्यार रहे
आधार निरंतर


अशोक व्यास
२७ दिसंबर १९९४ को लिखी 
५ अगस्त २०१० को लोकार्पित