Thursday, March 31, 2011

जो बड़ा है सबसे


वह 
जो बड़ा है सबसे
उस तक
पहुँचाने वाली 
हर बात, हर सोच
बड़ा बना देती है हमें


अशोक व्यास
११ मार्च १९९७ को जयपुर में लिखी पंक्तियाँ
३१ मार्च २०११ को जोधपुर से लोकार्पित   
   

Wednesday, March 30, 2011

सुमिरन सुवास


अमृत अगार
करूणा अपार
आनंद धाम
मतवारे श्याम

हो तेरी प्यास
तुझमें निवास
हो तेरी आस
सुमिरन सुवास

जय मुरलीधर मोहन प्यारे
जय जय केशव अनुपम न्यारे


अशोक व्यास
२२ मार्च १९९७ को मुम्बई में लिखी पंक्तियाँ
३० मार्च २०११ को न्यूयार्क से लोकार्पित            

Tuesday, March 29, 2011

समर्पण बाध्यता नहीं


ज्वार उतरा
शांत सागर
नन्ही लहर
निर्दोष, सरल
खेलती है
बीज पुरानी फसल के
रह गए तो

फिर उगेगा संशय
ज़हरीली होगी हवा

शक्ति प्यार है
शस्त्र प्रार्थना

समर्पण बाध्यता नहीं
आलिंगन है विस्तार का

अशोक व्यास
२३ मार्च १९९७ को लिखी
२९ मार्च २०११ को lokarpit  

          

Monday, March 28, 2011

कैसे वो अनुभव दोहराऊँ



पूजा  ध्यान हो रहे खाना पूरी
बढ़ती जाती ठाकुर जी  से दूरी
 
कर्म पाठ में प्यार खो रहा
ऐसा  कहे प्रभु हो रहा
 
कैसे वो अनुभव दोहराऊँ
जिनमें सिर्फ आपको पाऊँ
 
हे अनंत, मत करो बावरा
राह दिखाओ
प्रीत तुम्हारी लक्ष्य सांस का
चाह जगाओ 
 
अशोक व्यास
१७ मई 1997 को लिखी
२८ मार्च २०११ को लोकार्पित      
     

Sunday, March 27, 2011

जय जय जय नंदलाल


जय जय जय नंदलाल
जय जय जय पृथ्वीपाल

आनंदित रूप धरयो
पहिरी है ब्रज की माल

गाओ गुण श्याम सखी
दे दे कर प्रेम ताल

यशोदा का नंदनंदन
कान्हा बलिहारी जाऊं

मुख माखन लिपटाये
देखो कान्हा आये

पग धर कर रेत करे, स्वर्ण सरीखी कान्हा
अपनी छवि भक्तन के नाम कर दीनी  कान्हा

जय जय मंगल जय
जय जय कल्याणकारी
बलिहारी , त्रिपुरारी, वारि, मैं तो वारि

अशोक व्यास
२१ फरवरी १९९७ को लिखी
२७ मार्च २०११ को लोकार्पित   

         

Saturday, March 26, 2011

नित कृष्ण कृष्ण ही गाऊँ


कृपा आपकी
बरसे क्षण क्षण
मूरख जान ना पाऊँ

एक साध है
एक बात
नित कृष्ण कृष्ण ही गाऊँ

ओ कान्हा
बंशी वाले
मैं नित्य तुझ ही को ध्याऊँ
सुमिरन तेरा 
तेरी आस ही
सांस सांस अपनाऊँ

अशोक व्यास
३० अप्रैल १९९७ की रचना
२६ मार्च २०११ को लोकार्पित         

Friday, March 25, 2011

ईश्वर के नाम


मैं अब भी 
मचलता हूँ
कामना की छिछली तरंगों पर
गुमनाम किनारे पर मंडराते भँवरे सा
और फिर
अपने पंखों को समेत तेला
उतर आता उस पगडंडी पर
जहाँ से
ईश्वर के नाम 
यह पुकार
'अब तो मुझे बचाओ'

अशोक व्यास
१६ मार्च 1997 की रचना
२५ मार्च २०११ को लोकार्पित        

Thursday, March 24, 2011

मांगें सच की


मेरा होना क्या है
ढूंढता हूँ
यहाँ-वहां
नींद से बोझिल आँखे लिए
निराशा की पतझड़ में
लगता है
नहीं मिलेगा कभी
अपने होने का सबब
ठेलता हूँ
एक झूठ से दूसरे झूठ तक
खुदको
क्योंकि सच क्या है
जानता नहीं
और जान लेता हूँ कभी
तो मान नहीं पाता
मांगें सच की


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ मार्च १९९७ को लिखी रचना
२४ मार्च २०११ को लोकार्पित             

Wednesday, March 23, 2011

बचपन की एक सुनहरी याद


एक शून्य से दुसरे शून्य तक
एक खालीपन से दुसरे खालीपन तक
धूल भरी आंधी की तपन में
हाथ-पाँव गल रहे
न पकड़, न जमाव
न दिशा, न गति
ईश्वर का नाम
 बचपन की एक सुनहरी याद सा
गोल- गोल घूमता है
थका थका बोध
मैं नहीं हूँ कहीं भी
और अब भी 
यह ख्वाहिश है
की मै हो जाऊं

अशोक व्यास
१५ मार्च १९९७ को
मुम्बई में लिखी गयी रचना
२३ मार्च २०११को न्यू योर्क से लोकार्पित            

Tuesday, March 22, 2011

ले सुमिरन आधार


बीती राह बिसार पथिक
कर अपने पथ से प्यार

व्यर्थ संशयों की बस्ती से
मत ले उलझन की मार

तू ही है संकट गर अपना
तुझ में है निस्तार

तेरी आँखों में जादू है
तुझमें सब संसार

दूर दूर तक छोड़ झांकना
ले सुमिरन आधार

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ मार्च १९९७ को लिखी
               २२ मार्च २०११ को लोकार्पित          

Monday, March 21, 2011

उसकी कृपा का श्रृंगार


आज इस क्षण
पढ़ते-लिखते
यह शब्द
जुड़ कर मुरलीवाले से
मांग लें
उस दृष्टि का उपहार
कि दीखता रहे
हर घटना के पार
उसकी कृपा का श्रृंगार


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ मार्च २०११           

Sunday, March 20, 2011

अमृतमय हर सांस


अब सौंप दिया तन को
मन को
वंदन करूणा के
सावन को

ओ श्याम सखा
मुरली वाले
मुस्कान तेरी दिखती जाये
जब जब देखूं
वृन्दावन को

विस्तार आनंद उल्लास
अमृतमय हर सांस

अशोक व्यास
२१ मार्च १९९७ को लिखी
२० मार्च २०११ को लोकार्पित      
  

Saturday, March 19, 2011

मैं की कश्ती छोड़ कर


बरसों से लिखता रहा
नित्य वही एक बात
साथ एक बस श्याम का
और ना कोइ साथ

आलिंगन कर श्याम का
मन में हर्ष अपार
मांग मांग कर बांटता
मैं कान्हा का प्यार

मैं की कश्ती छोड़ कर
थाम नाम पतवार
जाने कैसे हो गया
स्वतः भंवर के पार


अशोक व्यास
२८ मार्च १९९७ को लिखी
१९ मार्च २०११ को लोकार्पित         

Friday, March 18, 2011

वहां प्रकट वो, जहाँ प्रेम ने बुलवाया है


कान्हा की बातों से ब्रज  में उत्सव रचता
हर धड़कन में श्याम सखा का गौरव बजता

है उल्लास, उसी अच्युत के रंग से
घर घर, महके है देखो सत्संग से

कण कण में केशव प्यारे की ही माया है
वहां प्रकट वो, जहाँ प्रेम ने बुलवाया है   

अशोक व्यास
२८ मई १९९७ को लिखी
१८ मार्च २०११ को लोकार्पित  

Thursday, March 17, 2011

मुरलीधर ब्रजराज गोपाल


जय गिरिधारी
श्याम बिहारी
मुरलीधर ब्रजराज  गोपाल
राधा प्यारी
सखियाँ सारी
तुझे नचायें, प्रेम की ताल

मोर मुकुट धर
श्याम मनोहर
पीत वासन है, नयन विशाल
इन्द्र जी हारे
ब्रह्मा हारे
काट दिया मद का जंजाल

जय गिरिधारी
श्याम बिहारी
गले धरी वैजयंती माल
यासुमती मैय्या
प्रेम की छईया
मुख दिखलाये तीनो काल

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० मई १९९७ को लिखी
१७ मार्च २०११ को लोकार्पित                  

Wednesday, March 16, 2011

बदली जैसा रूप है



तीन  दोहे

उर में सुमिरन श्याम का 
नयन मधुर मुस्कान
निसदिन उसका नाम लूं
करूं उसी का ध्यान


सब लोगों के साथ में
मिले मधुर एकांत
कोलाहल के बीच भी
कान्हा रखता शांत


प्रेम करूं घनश्याम से
किस बिधि कौन बताये
बदली जैसा रूप है
आये फिर छुप जाए


अशोक व्यास
२ जून १९९७ को लिखी
१६ मार्च २०११ को लोकार्पित              
     

Tuesday, March 15, 2011

बतलाओ मुझको हे श्याम


प्रेम तिहारा किस बिध जागे
बतलाओ मुझको हे श्याम
क्यूं ऐसा जंजाल बिछा है
ले ना पाऊँ तेरा नाम

साथ तुम्हारा, नित्य निरंतर
सांस सांस हो तेरा ही स्वर
हे गिरिधारी
हे बनवारी
संग तुम्हारा कितना अनुपम
मधुर तेरा आनंदित धाम
प्रेम तिहारा किस बिध जागे
बतलाओ मुझको हे श्याम

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ जून १९९७ को लिखी 
१५ मार्च 2011 को लोकार्पित     

Monday, March 14, 2011

देखूं तुमको किस तरह



बीच तुम्हारे और मेरे
है सारा संसार
देखूं तुमको किस तरह
सबको करके पार

तुम स्वामी हो अन्तर्यामी
करते अद्भुत खेल
कृपा तुम्हारे हो तभी
होता खुद से मेल

चंचल चित की चाट से
भरा हुआ बाज़ार
कान्हा तेरी कृपा बिन
मिल न पाए सार           

अशोक व्यास
२ जून १९९७ को लिखी
१४ मार्च २०११ को लोकार्पित  

Sunday, March 13, 2011

बोलो इतने प्यार से


नाम श्याम का साथ ले सखी
तज सब दूजी बात
बिना श्याम रस हीन सब
सूखे दिन और रात

प्रेम कमंडल हाथ ले
फिरता पथ अनजान
पर पग पग अपना लगे
वो रखता सब ध्यान

बोलो इतने प्यार से
शीतल हो हर सांस
पुलकित मन में धरा हो
कान्हा का विश्वास

रे मन अपना है वही
जिससे नित्य का नाता
वरना रिश्तों का सफ़र
चले फकीरा गाता


अशोक व्यास
४ जून १९९७ को लिखी
१३ मार्च २०११ को लोकार्पित             

Saturday, March 12, 2011

सुमिरन अमृत है तेरा


मंगल तेरा नाम है
सुन्दर तेरा रूप
सुमिरन अमृत है तेरा
लीला तेरी अनूप

ओ अमृतवर्षक घनश्याम
नित्य ढूंढता तेरा नाम
आँख बंद कर निकल पड़ा
चाहूं तू ले आकर थाम

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ जून १९९७ को लिखी
१२ मार्च २०११ को लोकार्पित         

Friday, March 11, 2011

मेरे मन की बांसुरी


मेरे मन की बांसुरी
कान्हा आन बजाये
मीठा लागे है बहुत
नाम स्वयं का गाये 

र मन, भज उल्लास से
अंतरहित का नाम
वो माता, वो पिता भी
उसको नित्य प्रणाम

कहना है किससे, कहो
कान्हा का सन्देश
उद्धव  बन कर मन खड़ा
श्याम गोपिका वेश

अद्भुत उसके नयन हैं
अद्भुत उसके बैन
धन्य हुई मैं बावरी
मिले श्याम से नैन


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ जून १९९७ को लिखी
                    ११ मार्च २०११ को लोकार्पित                 

Thursday, March 10, 2011

सब कुछ तेरे हाथ


मेरे बस में कुछ नहीं
सब कुछ तेरे हाथ
अमृत सम सुख दे रही
बस इतनी सी बात

गिरिधारी के नाम पर
छोड़ दिया घर बार
मगर नहीं चलता कभी
अहंकार संग प्यार

हे गोकुलवासी कहो
काहे रहे खिझाय 
सब खोया पाया लगे
सब पाऊँ सब जाय

हे अच्युत तेरी शरण
और न दूजा काम
इतनी किरपा हो प्रभु
भजूँ श्याम अविराम

आते जाते हैं सखा
सब छाया के खेल
मैं जिसकी छाया यहाँ
कब हो उससे मेल


अशोक व्यास
१ जून १९९७ को लिखी
१० मार्च २०११ को लोकार्पित                      

Wednesday, March 9, 2011

जब बैठूं धर ध्यान तिहरा


ठाकुर तेरी बात ज्यूं
सुई- घास का ढेर

यहाँ वहां खोजा करूँ
नाम जपन हो देर

जब बैठूं धर ध्यान तिहरा
दिखने लग जावे जग सारा

यह वह बात दिखे
जिससे हो जावे मति का फेर
ठाकुर तेरी बात ज्यूं
सुई-घास का ढेर


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० मई १९९७ को लिही
९ मार्च २०११ को लोकार्पित           

Tuesday, March 8, 2011

मन चंचल भटके बहुत


मन चंचल भटके बहुत
दूर श्याम से जाय
अमृत तट से दूर जा
घास-फूस को खाय

कांटे खाता जा रहा
मुख है लहूलुहान
रेगिस्तानी ऊँट सा
मन इससे अनजान


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, ८ मार्च 2011 

Monday, March 7, 2011

नित्य मधुरता रस छलकाओ


सवाल भरा मौन
संशय भरा मौन
आपका स्पर्श
छीन लेता कौन

समीप आओ 
अपना बनाओ
ओ करूणामय
मुझसे गाओ 

नित्य मधुरता रस छलकाओ
प्यार अमिट अपना दिखलाओ
ओ अच्युत, ओ सखा अनूठे
कैसे प्रेमी बनूँ तुम्हारा, तुम बतलाओ 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ जून १९९७ को लिखी
७ मार्च २०११ को लोकार्पित       

     

Sunday, March 6, 2011

कान्हा की मुस्कान मिटाये है हर उलझन


श्याम तिहारी और हो
मन का नित्य प्रवाह
और कामना से परे 
रहे तुम्हारी चाह

हे मधुसूदन, कृष्ण मुरारी
सदा सुहाए छवि तुम्हारी

सुमिरन रस देता है आस
हर एक ठौर तुम्हारा वास

 कान्हा की मुस्कान मिटाये है हर उलझन
            भवसागर के पार कराये बांकी चितवन        

अशोक व्यास
३० जून १९९७ को लिखी
६ मार्च २०११ को परिमार्जन के साथ लोकार्पित  

Saturday, March 5, 2011

रोम रोम से उसका ही हो जाऊं मैं


शरण श्याम की ही है
फिर ये डर कैसा
भूल हुयी क्या
अहंकार का ज्वर कैसा

चिंता कल की इतनी
खुद पर संशय सा
प्रेम नदी के बीच
 भंवर सा ये कैसा

तन्मय होकर उसकी लीला गाऊँ मैं
रोम रोम से उसका ही हो जाऊं मैं
करुनामय से मिले प्रेम आशीष सदा
सबमें उसके दरस करूँ, अपनाऊँ मैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ जून १९९७ को लिखी
५ मार्च २०११ को लोकार्पित       

Friday, March 4, 2011

श्याम सब ही को नचावे


श्याम सखा संग
खेलन जाए
गोपी मन ही मन 
इतराए

कर श्रृंगार
देख दर्पण को
श्याम दरस सुख पावे
नाचे गोप
गोपियाँ नाचे
श्याम सब ही को नचावे

अनुपम
मंगल
उज्जवल कान्हा
प्रेम प्यास को बढ़ावे

मन 
निर्मल हो
धड़कन में सखी
ऋतु वसंत की गावे

देखी छटा जो
नंदनंदन की
शेष न कछु रह जावे

जय श्री कृष्ण
जय श्री कृष्ण
सांस मधुर धुन आवे

अशोक व्यास
२६ जून १९९७ को लिखी
                    

Thursday, March 3, 2011

इतना अहसान निरंतर हो


कृपा तेरी पहचान सकूं
बस इतना ज्ञान निरंतर हो

कण कण में तेरा ध्यान चखूँ
बस इतना भान निरंतर हो

ओ करूणा वत्सल मनमोहन
मैं मूरख हूँ ,अज्ञानी हूँ

पर तेरा लीला गान चखूँ
इतना अहसान निरंतर हो


अशोक व्यास
१७ जून १९९७ को लिखी
३ मार्च २०११ को लोकार्पित    

Wednesday, March 2, 2011

मन में नित्य वसंत


 1
रंग चढ़ा कर श्याम का 
मन में नित्य वसंत
मीत मेरा है बस वही
जिसका आदि ना अंत

 
मन तो है जी बावरा 
छोड़ देवे है श्याम
अगल बगल में चल रहे
यही क्रोध और काम


अशोक व्यास
१५ जून १९९७ को लिही
३ मार्च २०११ को लोकार्पित         

Tuesday, March 1, 2011

दिख दिख कर छुपता जाए


बार बार गूंथूं माला
बार बार ढूंढूं नंदलाला
दिख दिख कर छुपता जाए
वो मधुर मुरलिया वाला

श्याम सहारे बैठ लूं
भजूँ उसे दिन रात
वह अद्भुत मनमोहना
अनुपम उसकी बात

सुन्दरतम श्रृंगार है
अति उत्तम है प्यार
पावन ब्रजभूमि  हुयी
कान्हा किये विहार

अशोक व्यास
१४ जून १९९७ को लिखी
१ मार्च २०११ को लोकार्पित