Krishna is the one who 'attracts', plays and invites our consciousness to merge with His infinite consciousness in a very playful manner. This blog is an offering at His feet with prayers for invoking Him and celebrating His all pervading presence of Gopal. Cherishing the memories of contact with Natwar Nagar and surrendering myself at the feet of this ever uplifting, eternal companion, trouble shooter and wisest guide at every step.
Thursday, March 31, 2011
Wednesday, March 30, 2011
Tuesday, March 29, 2011
Monday, March 28, 2011
Sunday, March 27, 2011
जय जय जय नंदलाल
जय जय जय नंदलाल
जय जय जय पृथ्वीपाल
आनंदित रूप धरयो
पहिरी है ब्रज की माल
गाओ गुण श्याम सखी
दे दे कर प्रेम ताल
यशोदा का नंदनंदन
कान्हा बलिहारी जाऊं
मुख माखन लिपटाये
देखो कान्हा आये
पग धर कर रेत करे, स्वर्ण सरीखी कान्हा
अपनी छवि भक्तन के नाम कर दीनी कान्हा
जय जय मंगल जय
जय जय कल्याणकारी
बलिहारी , त्रिपुरारी, वारि, मैं तो वारि
अशोक व्यास
२१ फरवरी १९९७ को लिखी
२७ मार्च २०११ को लोकार्पित
Saturday, March 26, 2011
Friday, March 25, 2011
Thursday, March 24, 2011
मांगें सच की
मेरा होना क्या है
ढूंढता हूँ
यहाँ-वहां
नींद से बोझिल आँखे लिए
निराशा की पतझड़ में
लगता है
नहीं मिलेगा कभी
अपने होने का सबब
ठेलता हूँ
एक झूठ से दूसरे झूठ तक
खुदको
क्योंकि सच क्या है
जानता नहीं
और जान लेता हूँ कभी
तो मान नहीं पाता
मांगें सच की
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ मार्च १९९७ को लिखी रचना
२४ मार्च २०११ को लोकार्पित
Wednesday, March 23, 2011
बचपन की एक सुनहरी याद
एक शून्य से दुसरे शून्य तक
एक खालीपन से दुसरे खालीपन तक
धूल भरी आंधी की तपन में
हाथ-पाँव गल रहे
न पकड़, न जमाव
न दिशा, न गति
ईश्वर का नाम
बचपन की एक सुनहरी याद सा
गोल- गोल घूमता है
थका थका बोध
मैं नहीं हूँ कहीं भी
और अब भी
यह ख्वाहिश है
की मै हो जाऊं
अशोक व्यास
१५ मार्च १९९७ को
मुम्बई में लिखी गयी रचना
२३ मार्च २०११को न्यू योर्क से लोकार्पित
Tuesday, March 22, 2011
Monday, March 21, 2011
Sunday, March 20, 2011
Saturday, March 19, 2011
Friday, March 18, 2011
Thursday, March 17, 2011
मुरलीधर ब्रजराज गोपाल
जय गिरिधारी
श्याम बिहारी
मुरलीधर ब्रजराज गोपाल
राधा प्यारी
सखियाँ सारी
तुझे नचायें, प्रेम की ताल
मोर मुकुट धर
श्याम मनोहर
पीत वासन है, नयन विशाल
इन्द्र जी हारे
ब्रह्मा हारे
काट दिया मद का जंजाल
जय गिरिधारी
श्याम बिहारी
गले धरी वैजयंती माल
यासुमती मैय्या
प्रेम की छईया
मुख दिखलाये तीनो काल
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० मई १९९७ को लिखी
१७ मार्च २०११ को लोकार्पित
Wednesday, March 16, 2011
Tuesday, March 15, 2011
बतलाओ मुझको हे श्याम
प्रेम तिहारा किस बिध जागे
बतलाओ मुझको हे श्याम
क्यूं ऐसा जंजाल बिछा है
ले ना पाऊँ तेरा नाम
साथ तुम्हारा, नित्य निरंतर
सांस सांस हो तेरा ही स्वर
हे गिरिधारी
हे बनवारी
संग तुम्हारा कितना अनुपम
मधुर तेरा आनंदित धाम
प्रेम तिहारा किस बिध जागे
बतलाओ मुझको हे श्याम
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ जून १९९७ को लिखी
१५ मार्च 2011 को लोकार्पित
Monday, March 14, 2011
Sunday, March 13, 2011
बोलो इतने प्यार से
नाम श्याम का साथ ले सखी
तज सब दूजी बात
बिना श्याम रस हीन सब
सूखे दिन और रात
प्रेम कमंडल हाथ ले
फिरता पथ अनजान
पर पग पग अपना लगे
वो रखता सब ध्यान
बोलो इतने प्यार से
शीतल हो हर सांस
पुलकित मन में धरा हो
कान्हा का विश्वास
रे मन अपना है वही
जिससे नित्य का नाता
वरना रिश्तों का सफ़र
चले फकीरा गाता
अशोक व्यास
४ जून १९९७ को लिखी
१३ मार्च २०११ को लोकार्पित
Saturday, March 12, 2011
Friday, March 11, 2011
मेरे मन की बांसुरी
मेरे मन की बांसुरी
कान्हा आन बजाये
मीठा लागे है बहुत
नाम स्वयं का गाये
र मन, भज उल्लास से
अंतरहित का नाम
वो माता, वो पिता भी
उसको नित्य प्रणाम
कहना है किससे, कहो
कान्हा का सन्देश
उद्धव बन कर मन खड़ा
श्याम गोपिका वेश
अद्भुत उसके नयन हैं
अद्भुत उसके बैन
धन्य हुई मैं बावरी
मिले श्याम से नैन
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ जून १९९७ को लिखी
११ मार्च २०११ को लोकार्पित
Thursday, March 10, 2011
सब कुछ तेरे हाथ
मेरे बस में कुछ नहीं
सब कुछ तेरे हाथ
अमृत सम सुख दे रही
बस इतनी सी बात
गिरिधारी के नाम पर
छोड़ दिया घर बार
मगर नहीं चलता कभी
अहंकार संग प्यार
हे गोकुलवासी कहो
काहे रहे खिझाय
सब खोया पाया लगे
सब पाऊँ सब जाय
हे अच्युत तेरी शरण
और न दूजा काम
इतनी किरपा हो प्रभु
भजूँ श्याम अविराम
आते जाते हैं सखा
सब छाया के खेल
मैं जिसकी छाया यहाँ
कब हो उससे मेल
अशोक व्यास
१ जून १९९७ को लिखी
१० मार्च २०११ को लोकार्पित
Wednesday, March 9, 2011
Tuesday, March 8, 2011
Monday, March 7, 2011
Sunday, March 6, 2011
Saturday, March 5, 2011
रोम रोम से उसका ही हो जाऊं मैं
शरण श्याम की ही है
फिर ये डर कैसा
भूल हुयी क्या
अहंकार का ज्वर कैसा
चिंता कल की इतनी
खुद पर संशय सा
प्रेम नदी के बीच
भंवर सा ये कैसा
तन्मय होकर उसकी लीला गाऊँ मैं
रोम रोम से उसका ही हो जाऊं मैं
करुनामय से मिले प्रेम आशीष सदा
सबमें उसके दरस करूँ, अपनाऊँ मैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ जून १९९७ को लिखी
५ मार्च २०११ को लोकार्पित
Friday, March 4, 2011
श्याम सब ही को नचावे
श्याम सखा संग
खेलन जाए
गोपी मन ही मन
इतराए
कर श्रृंगार
देख दर्पण को
श्याम दरस सुख पावे
नाचे गोप
गोपियाँ नाचे
श्याम सब ही को नचावे
अनुपम
मंगल
उज्जवल कान्हा
प्रेम प्यास को बढ़ावे
मन
निर्मल हो
धड़कन में सखी
ऋतु वसंत की गावे
देखी छटा जो
नंदनंदन की
शेष न कछु रह जावे
जय श्री कृष्ण
जय श्री कृष्ण
सांस मधुर धुन आवे
अशोक व्यास
२६ जून १९९७ को लिखी
Thursday, March 3, 2011
Wednesday, March 2, 2011
Tuesday, March 1, 2011
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