Friday, April 30, 2010

नन्द प्रेम रसशाला


गिरिधर प्रेम प्रसाद अरोगे
गोपीजन ब्रजबाला 
हँस हँस वैभव प्रचुर लुटाये
नंदलाल मतवाला

माखन मिस्री मधुर सुहाए
कृष्ण प्रेम से रुच रुच खाए

नयनों में अमृत उंडेलता
सुन्दरतम छवि वाला
पावन करती, कण कण को यह
नन्द प्रेम रसशाला

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ अगस्त २००५  को लिखी 
३० अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Thursday, April 29, 2010

बस खेल निभाने कान्हा का


आनंद, प्रेम पथ का साथी
ये कृपा द्वार से खुलता है
अनुभूति का सुन्दर झरना
कान्हा से मिलता जुलता है

वो श्याम करूण, आनंद सघन
मेरे रोम रोम में बसता है
मुझे सीमा की अकुलाहट दे
वो मुरलीवाला हंसता है 

उसके छल को पहचान लिया
अब सब कुछ उसका मान लिया
बस खेल निभाने कान्हा का
अब ओढ़ तनिक अभिमान लिया 

अशोक व्यास
१३ अगस्त २००५ को लिखी पंक्तियाँ
२९ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Wednesday, April 28, 2010

कृपा किरण गोविन्द प्रभु की



कान्हा कान्हा जपे रात-दिन
परमानन्द निवास निरंतर
गिरिधर की लीला में खोई
सुने सांस में मुरली का स्वर

चेतन नित्य मधुर मनभावन
कृष्ण प्रेम की छलकी गागर
कृपा किरण गोविन्द प्रभु की
हरती तम, प्रकटित सुखसागर

अशोक व्यास
११ अगस्त २००५ को लिखी 
२८ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Tuesday, April 27, 2010

कान्हा प्रियतम नित्य सखा


प्रेम अपार
बहा
सांवरिया 
बंशी तान सुनाये,
जो भीगा है
प्रेम नदी में
सिर्फ वही सुन पाए

वस्त्र संभाल रक्खे
ना भीगे 
उसने क्या खोया है,
आंसू सबकी आँख सजे
कोई दुःख
कोई सुख रोया है

कान्हा का स्पर्श, जगा आनंद अपार
रुलाये
ऐसे अश्रु बिंदु सहित सब क्लेश-कलुष
धुल जाए

कान्हा प्रियतम
 नित्य सखा
अब और नहीं कुछ भाये,
पवन सखी संग
पत्ता पत्ता
कान्हा कान्हा गाये


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
 १० अगस्त २००५ को लिखी
२७ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Monday, April 26, 2010

गोपसखा चल रहे उछल कर


उतर रहा आनंद अनूठा
मद्धम स्वर में चहके कोयल

प्रेम पराग भरे मधुकर अब
गुंजन करते पावन शीतल
2
इस पथ कान्हा की आवन है
धूल दिव्य, उज्जवल सबका मन

कान्हा के दरसन की महिमा
कह ना सके जग का सारा धन
 3
अब उल्लास अपार लुटाते
गोपसखा चल रहे उछल कर

कान्हा कृपा कटाक्ष करूण यह
बल देती अद्भुत निर्बल कर 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ अगस्त २००५ को लिखी
२६ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Sunday, April 25, 2010

केशव के चरणारविन्द


लिए मधुर किरणे प्रभु 
सूरज रूप लिए जग छाये

जिससे सब अज्ञान दूर हो
वह आलोक जगाये

केशव के चरणारविन्द की
महिमा वरणी ना जाए

जो पा जाए वह वैभव
वो सकल जगत अपनाए 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ अगस्त २००५ को लिखित
२५ अप्रैल को लोकार्पित

Saturday, April 24, 2010

कृष्ण करूण



कृष्ण करूण, कर कृपा कालभय सकल हरो
प्रेम पंख पावन दो, भक्ति आंगन उतरो 

गा तव महिमा 
रोम रोम पुलकित आनंदित
ध्यान तुम्हारा 
सारे जग को करे समन्वित

पग पग, सुमिरन सुन्दर, मानस में उभरो 
कृष्ण करूण, कर कृपा कालभय सकल हरो

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
७ अगस्त २००५ को लिखित
२४ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Friday, April 23, 2010

दिया निमंत्रण सारे जग को


कृष्ण प्रेम रस
भरा ठसा तहस
पत्ती-पत्ती देखूं
हँस-हँस 

प्रेम लुटाने आये गिरिधर
लूट रहे प्रेमी जन मिल कर
दिया निमंत्रण सारे जग को
बंशी बजा कर, रास रचा कर


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ और ५ अगस्त २००५ को लिखी
२३ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Thursday, April 22, 2010

जिसने पाया श्याम


कर कान्हा के नाम तू
शब्द, सोच, हर बात
सांस साध ऐसे रे मन
नित श्याम सखा हो साथ


रोक प्रेम का रोकना
कहता भक्त सुजान
हुआ श्याम का संग जब
क्यूं फिर संग हो आन

मान और अपमान का
खेल हुआ नाकाम
उसे कौन बाँधे भला
जिसने पाया श्याम

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ अगस्त २००५ को लिखी
२२ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Wednesday, April 21, 2010

देकर श्याम को श्याम


द्वार कृष्ण के पहुँच कर
पूछे अपना नाम
पता करे, क्या है मेरा
जिसे चढाऊं श्याम

नहीं मेरा कुछ भी कहीं
मेरा बस एक श्याम
श्याम सहारे चला चल 
देकर श्याम को श्याम


अशोक व्यास
२ अगस्त ०५ को लिखी
२१ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Tuesday, April 20, 2010

आनंद का अबाध प्रवाह

(कुछ बरस पहले लिखे गए शब्द, लिखते समय जिस अनुभूति का स्पर्श करवा गए
उसकी महिमा को किसी दूसरे तक बांटने में संकोच होता है
पर इस भाव के साथ प्रस्तुत हैं ये पंक्तियाँ कि 'अन्य' कोई है ही नहीं 
पढ़ने और लिखने वाला 'एक' ही है और अभिव्यक्ति उसी 'एक' के होने का उत्सव मात्र है)



मन शांत
कान्हा की सन्निद्धि
चहुँ ओर उसी की शक्ति
माँ के रूप में शक्ति
माँ के भीतर बालकृष्ण

बालकृष्ण की लीला से जगत
जगत में एकता
ऐक्य का प्रसरण      
मैं - मधुर मौन
मुझमें लीलते जाते हिंसा, द्वेष और
अत्याचार के सारे कृत्य 



पचा कर विष 
प्रयोग करवाने अमृत का
शिवरूप प्रकट मुझमें

मैं यह नहीं
जो भासित है
मैं वह जो
देखे से परे
पर दिखे सब ओर
मैं
जो अनवरत सृजनशीलता
मुझमें सृष्टि
मुझसे सृष्टि
काल की ताल से परे
मृत्यु के भौन्चाल से परे

मैं ज्ञान का अमृत सिन्धु
आनंद का अबाध प्रवाह
लेकर अमोघ शांति
और छलछलाता अक्षय प्रेम
आलिंगन बद्ध कर रहा
सृष्टि सारी


अशोक व्यास
३० जुलाई २००५ को लिखी
२० अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Monday, April 19, 2010

अनंत वैभव


सर्व मंगल
शांति 
सुख
आनंद
प्रेम गहराए,
प्रभु
कृपा से
हर मन
अनंत वैभव पाए


अशोक व्यास
२८ जुलाई २००५ को लिखी प्रार्थना
१९ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Sunday, April 18, 2010

मधुर छवि मेरे कान्हा की






कान्हा कौन है 
कान्हा प्यारा है

कान्हा कैसा है
कान्हा न्यारा है

प्यारा कौन है
कान्हा प्यारा है

न्यारा कौन है
कान्हा न्यारा है

हमारा कौन है
कान्हा हमारा है


मनमोहन सरकार हमारे
चलें लिए मुस्कान
हरते जाते हैं मन उसका
जिसका पाते ध्यान


गोविन्द गोविन्द गोविन्द गोविन्द

मीठी है मुस्कान मधुर मेरे कान्हा की
लगती है हर बात मधुर मेरे कान्हा की
दिखने में चाहे एकाकी दिखा करूं
साथ निरंतर मधुर छवि मेरे कान्हा की


अशोक व्यास
१४ जुलाई १९ जुलाई और २२ जुलाई २००५ को लिखी
१८ अप्रैल २०१० को लोकार्पित 

Saturday, April 17, 2010

निर्भय श्याम सहारे



चिर आनंद लुटाये केशव
लूट ना कोई पाए
जिसमें जितनी भूख जगी हो
उतना ही वो खाए

प्रेम प्रवाह मधुर मनमोहन 
बन्शीधुन बन आये
जिसको चाहे, उसे जगा कर
अपने संग नचाये

नाचे मोहन, नाचे राधा 
नाचे गोप-गोपियाँ सारे
तैरे नौका, तेज धार में
निर्भय श्याम सहारे

अद्भुत लीला गिरिधारी की
हरदम नूतन उजियारी
हुई कृपा, हो गयी बावरी
सब कुछ कान्हा पर हारी


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ जुलाई ०५ को लिखी
१७ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Friday, April 16, 2010

कहाँ कृष्ण यदुराय


कान्हा मेरा रूठ के
छुपा कहीं पर जाय
बिन कान्हा के दरस तो
कुछ भी नहीं सुहाय

श्याम श्याम करती फिरूं
वन वन भटकूँ जाय
कृपा करे, कह दे कोई
कहाँ कृष्ण यदुराय?

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१० जुलाई ०५ को लिखी
शुक्रवार, अप्रैल १६, 2010

Thursday, April 15, 2010

इस तरह मुझे अपनाया


उसने तपिश भरे हाथ से कन्धा सहलाया
दबा हुआ कामना का सैलाब बह आया

सिसक कर इस तरह हल्का होने पर हुआ अचरज
उसने माथे पर लगा दी मेरे अपने चरणों की रज

मानने में विवशता के स्थान पर मुक्ति की लहर 
पर बदले हुए रूप में बदला सा लगा सारा शहर

उसका अनुसरण करने में कैसा संतोष पाया
उसने तपिश भरे हाथों से कन्धा सहलाया

इस तरह मुझे अपनाया
या
मुझे मुझसे छुडाया

अशोक व्यास
९ जुलाई २००५ को लिखी
१५ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Wednesday, April 14, 2010

कान्हा ही कान्हा है


मनमोहन अधर मुरली
धरी धरी बजे रे
मोर पंख माथे सजे
प्रेम सहज झरे रे

श्याम नाम संग लिए
फिरूं डगर डगर में
कान्हा ही कान्हा है
हर एक नगर में

मुग्ध हुई सांवरे पे
अपना तन-मन वारूँ
उसी से है हर वैभव
अपना हर क्षण वारूँ


अशोक व्यास
न्यूयार्क
७ जुलाई २००५ को लिखी
१४ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Tuesday, April 13, 2010

मिली प्रेम गति न्यारी




प्रेम उजागर कर कान्हा ने
लीला रास रचाया
छक कर पान किया कण-कण ने
आनंद खूब लुटाया

श्याम सखा संग मस्त गोपियाँ
सुध बुध भूली सारी
छूट गए सब दुःख शोक 
मिली प्रेम गति न्यारी

मन वृन्दावन, यमुना तट पर
वैभव कृष्ण सुनाये
मुरली वाले की व्यापक छवि
अति सुन्दर मन भाये

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जुलाई २००५ को लिखी
१३ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Monday, April 12, 2010

तुझसे बतियाने का craze


हे कान्हा, ओ प्यारा कान्हा 
कॉल कर रहे भक्त सभी 
नंबर मिलता engage
 बढ़ता जाए जग में 
तुझको जाने बिना
तुझसे बतियाने का craze

बीतते जा रहे हैं days
आ तो रही हैं कृपा की rays
पर दिखाई नहीं देती always
open करना ऐसी ways

की मिले तेरी विशेष nearness
और जाग्रत रहे तेरी awareness


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ जुलाई २००५ को लिखी
१२ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Sunday, April 11, 2010

मुरली वाले की व्यापक छवि




प्रेम उजागर कर कान्हा ने
लीला रास रचाया
छक कर पान किया
कण कण ने
आनंद खूब लुटाया

श्याम सखा संग मस्त गोपियाँ
सुध बुध भूली सारी
छूट गए सब दुःख शोक सब
मिली प्रेम गति न्यारी

मन वृन्दावन यमुना तट पर
वैभव कृष्ण सुनाये 
मुरली वाले की व्यापक छवि 
अति सुन्दर मन भाये

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जुलाई २००५ को लिखी
११ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Saturday, April 10, 2010

श्याम सखा संग मस्त गोपियाँ


प्रेम उजागर 
कर 
कान्हा ने
लीला रास रचाया 
छक कर पान 
किया 
कण कण ने
आनंद खूब लुटाया 

श्याम सखा संग मस्त गोपियाँ 
सुध बुध भूली सारी
छूट गए सब दुःख शोक सब
मिली प्रेम गति न्यारी

मन वृन्दावन यमुना तट पर 
वैभव कृष्ण सुनाये
मुरली वाले की व्यापक छवि
अति सुन्दर मन भावे


अशोक व्यास
५ जुलाई २००५ को लिखी
१० अप्रैल २०१०

Friday, April 9, 2010

वैभव अपने नटवर का

परमानन्द धाम 
सांवरिया संग चली तो जाऊं 
पर क्या जाने मोहनी मूरत 
दरस वहां ये पाऊँ?
-----
पाँव में कांटे, प्यास दोपहरी
खड़ी बावरी रस्ते
जिस पथ आये सांझ समय 
सांवरिया हँसते हँसते

धूल उडाती धेनु का खुर
कर देता है पावन
ज्यों भंवरा रस फूल चखे त्यों
श्याम संग मेरा मन

मधुसुदन के मधुकर का
रसपान करे मन मेरा
सब जाए पर ना छूटे प्रभु
सुमिरन का धन मेरा

संबंधों का मेला मंगल
उपलब्धि का आँचल चंचल
सब में छुपा हुआ है एक छल
कान्हा सत्य सनातन हर पल

बैठ प्रेम से
गान करूं नित गोविन्द का, गिरिधर का
तन्मय होकर देखूं, वैभव अपने नटवर का


अशोक व्यास
२९ जून 2005 को लिखी
९ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Thursday, April 8, 2010

आनंद परम पायो प्रभुजी



आनंद परम पायो प्रभुजी
तव कृपा अनूठी बरस रही
जो बात कृष्ण का नाम लिए
उसमें मधु, अनुपम सरस रही

गा गोविन्द गोविन्द 
मन निसदिन
मत भूल, रूप हरि के
अनगिन

        मनमोहन की महिमा अनुपम 
  छुप छुप कण कण में दरस रही
आनंद परम पायो प्रभुजी
तव कृपा अनूठी बरस रही

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ जून ०५ को लिखी
८ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Wednesday, April 7, 2010

जब कृपा करे कन्हाई


चिर मंगल हो
कह कान्हा ने
हंस कर बंशी उठाई
मुग्ध हुए सब
अधर छुए बिन ही
बंशी ध्वनि आई

पत्ते पत्ते से
पवन संग 
मोहक धुन बज पाई
सब से 
सब संभव होवे
जब कृपा करे कन्हाई

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ जून ०५ को लिखी
८ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Tuesday, April 6, 2010

मुझमें मिल श्याम बनो


गिरिधारी की बाहँ पकड़ कर
बोली गोपी, संग चलो
तुम दिख दिख छुप जाते हो
तज खेल सांवरे, संग चलो

मोहन मुस्काये, 
मुरली अधरों पर सजा लई
सुध बुध भूली गोपी ऐसी
हो गई स्वयं ही श्याममई

सब भाव श्याम के अपना कर
बोली सखियों से इठला कर

जो खो जाने को तत्पर हो
मुझमें मिल श्याम बनो, आओ
गर मुझे छोड़, जग प्यारा है
फिर फिर जग के चक्कर खाओ

अशोक व्यास
२४ जून २००५ को लिखी
६ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Monday, April 5, 2010

मन चल वसंत का गीत सुनें


मन चल वसंत का गीत सुने
आनंद ताल
कर दे निहाल
तन्मयता का आलिंगन कर
मनमोहन को ही मीत चुनें

अब छोड़ किनारे का आंचल
उतरें अपनेपन में गहरे
अब श्याम समीप चलें झट से 
क्यूं रहें परिधि पर ठहरे

हो मिलन आज, इस क्षण ऐसा
चाहा है जन्मों से जैसा
हर सांस शुद्ध, पावन कर दे
कान्हा संग ऐसी प्रीत गुने
मन चल वसंत का गीत सुनें

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
७ मई २००९ को लिखी
५ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Sunday, April 4, 2010

छोड़ सभी संकल्प तुम्हारे द्वार



छोड़ सभी संकल्प तुम्हारे द्वार
मुक्त मन, घुला हुआ विस्तार

तुम्हारे चरण ना छू पाऊँ
नहीं मेरा कोई आकार

लिए इन शब्दों की झंकार
शेष है परिचय का एक तार

उसे भी सौंप तुम्हें कर्त्तार
बहूँ, ज्यूं शुद्ध प्रेम रसधार


अशोक व्यास
३० जनवरी २०१० को लिखी गयी
४ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Saturday, April 3, 2010

मेरे श्याम


मेरे श्याम कहा बस उसने
फिर उतरा एक गहरा मौन

जब आनंद सघन उतरा हो
कौन हिले, मुख खोले कौन

'श्याम मेरा है' भाव जाग कर
राग-द्वेष से पार कराये

'श्याम मेरा है' अनुभूति यह
प्रेम बढा उद्धार कराये

हँसे कभी, गाये और झूमे
भक्ति तरंग नव नृत्य उगाये

पत्ती-पत्ती, वृन्दावन की
पवन सखी संग 'कान्हा' गाये

चरण थिरक कर रुक जाए तब
धरा स्वयं ता थैय्या गाये

सकल व्योम का सार सांस में
सुन्दरतम गिरिधर धर जाए

मैं तो कलम चला कर तन्मय
श्याम स्वयं ही कलम चलाये

मेरा रोम रोम उसका है
ध्याम कृष्ण का बहुत लुभाए

जय हो

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ जून २००५ को लिखी
३ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Friday, April 2, 2010

हो कान्हा के साथ



कृष्ण नाम भज बावरे
छोड़ फांकना धूल
नटवर नागर कृपा से
क्षमा करें सब भूल

भक्ति का है आसरा
और ना दूजी बात
छोड़ द्वन्द की दोस्ती
हो कान्हा के साथ

अशोक व्यास
२० जून २००५ को लिखी पंक्तियाँ
२ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

Thursday, April 1, 2010

सदा उसी के साथ


जीवन अमृत धार है
जान सके तो जान
श्याम कृपा से हो रही
हर मुश्किल आसान


कर्म कराये सांवरा
बैठा रहूँ निशंक
श्याम नाम के आसरे 
राजा हो चाहे रंक 

कान्हा की सेवा करूं 
या कान्हा की बात
वो जैसे चाहे रहूँ
सदा उसी के साथ


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर २७ मिनट
१८ जून ०५ को लिखी
१ अप्रैल २०१० को लोकार्पित