Monday, February 28, 2011

श्याम सखा को भूल


चुप कर मन ओ बावरे
काहे फांके धुल
इधर उधर भागा करे
श्याम सखा को भूल

वो बांकी मूरत मधुर
करती खेल निराले
कभी महल की मौज में
कभी छाँव के लाले


अशोक व्यास
         १४ जून १९९७ को लिखी
२८ फरवरी २०११ को लोकार्पित 

Sunday, February 27, 2011

सन्दर्भों की नयी पगडण्डी

कान्हा
अब ये खेल बंद करो ना मेरे साथ
सन्दर्भों की नयी पगडण्डी पर ले जाकर
छुप ही जाते हो तुम तो

और मैं नाचता रहता हूँ
जिस धुन पर
वो तुम्हारी बंशी की धुन नहीं है



अशोक व्यास
अमेरिका
२७ फरवरी 2011      

Saturday, February 26, 2011

अस्तित्व भंवर का


जब ये जाना
बात तुम्हारे
समझ गया हूँ
छोड़ गए तुम
बीच भंवर में
साथ चुनौती छोड़ नयी एक

फिर जब माना
समझ मेरी
बिन कृपा तुम्हारी
मुक्त नहीं
कुछ सार सुधा बन कर
बह पाने

तब तुम
ऐसे मुस्काए
कि जैसे है ही नहीं 
अस्तित्व भंवर का

और हुआ क्या
लुप्त भंवर है

गति हंस सी
बनी सहचरी
सोच रहा हूँ
मुक्ति का यह
स्वाद अनूठा 
खेल तुम्हारा
कितना सुन्दर


अशोक व्यास
अमेरिका
शनिवार, २६ फरवरी 2011                     

Friday, February 25, 2011

श्याम सुन्दर से प्रीत है

 
श्याम सुन्दर से प्रीत है
यही हमारी जात
न भावे मनको सखी
कोइ दूजी बात
 
श्याम पिया का नाम ले
बैठी जमुना तीर
मन में नदिया प्रेम की
वही दिलाये धीर
 
एक  बार की बात हो
तो भी है कुछ बात
बार बार माँगा करून
श्याम प्रभु का साथ
 
माखन मिस्री खाय के 
आये बाल मुकुंद
मुख जो कर घनश्याम का
मिट गयी सारी धुंद
 
अशोक व्यास
१९ मई १९९७ को लिखी
२५ फरवरी २०११ को लोकार्पित             

Thursday, February 24, 2011

कण कण गूंजी तेरी लय है

 
यह मौन मधुर
तेरी करूणा का
छम छम बहता परिचय है
 
आनंद किरण
उतरी आँगन
कण कण गूंजी तेरी लय है
 
ओ श्याम सखा
तुम प्रेम गगन
तुम प्रेम धरा
तुमसे साँसे अमृतमय हैं
 जय श्री कृष्ण
 
१६ अप्रैल १९९७ को लिखी
२४ फरवरी २०११ को लोकार्पित 

Wednesday, February 23, 2011

जब सब हारी


जमुना के तट पर
बाट निहारे
सखियाँ कब से
कान्हा की,

करती जाएँ
तरह तरह से
बतियाँ जब से
कान्हा की

श्याम सुन्दर
चढ़ कदम डाल पर
देखे छुप छुप
मुख सबका

व्याकुल सखियाँ
जान न पाई
आ पहुंचा
कान्हा कब का

जय नन्दलाल
जय श्याम सुन्दर
जब छेड़ दिया 
मुरली का स्वर
सब उछल पडी
खुशियाँ उमड़ी
लो आयी आयी
मिलन घड़ी

जय जय केशव
जय गिरिधारी
तुम जानो हो
बतियाँ सारी
सब जीत गयी
जब सब हारी


अशोक व्यास
१३ अप्रैल १९९७ को लिखी
२३ फरवरी २०११ को लोकार्पित                     

Tuesday, February 22, 2011

पांवो में बंधन


मन में कई वासनाओं का डेरा है
उसको नहीं पुकार रहा, जो मेरा है
यहाँ-वहां
इस उस डाली पर
भटके है मन
फूलों की
तलाश, शूल से
लिपटे है मन

उसका द्वार खुला है
पर पांवो में बंधन
पिंजरे से है प्यार
तो कैसे पाए मोहन 

अशोक व्यास
९ अप्रैल १९९७ को लिखी
२२ फरवरी २०११ को लोकार्पित      

Monday, February 21, 2011

लाद न जबरन उसका नाम

गज़ब की कविता
७ अप्रैल १९९७ को लिखी गयी
आज २१ फरवरी २०११ को पढ़ते हुए
ऐसे लगा, जैसे शब्दों ने  'गुरु रूप लेकर थप्पड़' मारा हो 


अपना लिखा हम भूल भी जाते हैं
और अपने द्वारा व्यक्त बात को कभी पूरी तरह नया पाते हैं
खास करके जब १४ बरस पहले लिखे ऐसे शब्द सामने आते हैं 
- अशोक व्यास



कविता

मौन अश्व पर
रास लगा कर
लाद न जबरन उसका नाम
बंद है तू तो
साथ में अपने
कर देगा उसको बदनाम

सहज नहीं गर
बिना प्रेम के
झूठ बुनेगा सच के नाम
ऐसा कपडा
छेदों वाला
नहीं किसी के आये काम
छोड़ दे मन को
चरने दे कुछ
लेने दे जो चाहे नाम
चलते चलते
देखते रहना
स्वयं पुकारेगा घनश्याम

वो पुकार, जो प्यास भरी है
ले आयेगी उसको पास
वर्ना झूठे पंख लगा कर
सारे उम्र चुगेगा घास

जय श्री कृष्ण

           
 

Sunday, February 20, 2011

मन का खेल निराला है


सच्चा- झूठा
जैसा भी है
मन का खेल निराला है
कभी
कंस सा दिखता है ये
कभी बने नंदलाला है

रात अंधेरी
जंगल गहरा
पर चलता मतवाला है
किसने जाना
अहसासों पर
कौन लगाए ताला है

छप्पर टूटा
पंख लहू में
दरवाज़े पर ताला है
उजियारे की
बातें करता
मन पर कितना काला है

छोटे छोटे
पाँव चुराने
लम्बे रस्ते पार करे
बहुत बावरा 
ना पहचाने
कब क्यों किससे प्यार करे

ठहरा ठहरा
अपने ही से
ये कितनी तकरार करे
छुपा छुपा कर
रखे बदन को 
चुप चुप बहुत पुकार करे


अशोक व्यास
६ अप्रैल १९९७ को लिखी
२० फरवरी २०११ को उजागर      
       

Saturday, February 19, 2011

नटवर नागर


सत्य चराचर
दिव्य प्रभाकर
अंतर्मन में
है रत्नाकर

 नटवर नागर
भर दो गागर
हर लो पीड़ा
तुम अपनाकर

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ फरवरी २०११          

Friday, February 18, 2011

इतना सा बस ज्ञान करा दो गिरिधारी


फिर अपनी पहचान करा दो गिरिधारी
फिर से अपना ध्यान करा दो गिरिधारी

संग तुम्हारा संग नहीं रहता है क्यों
ये मुश्किल आसान करा दो गिरिधारी

 ओ मनमोहन, सबका मन हरने वाले
मोहक बंशी तान सुना दो गिरिधारी

छोड़ तुम्हें अब और कहीं न जाए मन
इतना सा बस ज्ञान करा दो गिरिधारी

तुम रसिया हो, जाने है ये जग सारा
अमृत रस का पान करा दो गिरिधारी

जिसको ध्याये ध्यान तुम्हारा बना रहे
ऐसी गति का ध्यान धरा दो गिरिधारी

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
२५ जुलाई १९९८ और १८ फरवरी २०११ 
  

Thursday, February 17, 2011

जैसा भी हूँ, अब अपनाओ, गिरिधारी


ओ केशव, बन्शीवाले, मोहन मेरे
काहे तुम इतना तरसाओ, गिरिधारी

दे दे कर अपनी छवि छीने लेते हो
भक्तजनों को यूं न सताओ गिरिधारी

क्षमा करो, गर कोइ त्रुटि की बाधा हो
जैसा भी हूँ, अब अपनाओ, गिरिधारी

तुम मधुरातिमधुर, आनंद अपार प्रभु
यह अमृतरस हमें चखो, गिरिधारी

खेल तुम्हारे बूझ नहीं पाते हैं हम 
हर उलझन को दूर भागो, गिरिधारी

नृत्य प्रेम में हो तेरे, क्या अद्भुत है
तन्मयता की तान जगाओ, गिरिधारी

जीने का उत्साह जगाओ, गिरिधारी
प्रेम नाव में सैर कराओ, गिरिधारी

अशोक व्यास
२१ जुलाई १९९८ को लिखी
१७ फरवरी २०११ को लोकार्पित        

Wednesday, February 16, 2011

जीने का उत्साह जगाओ गिरिधारी

 
जीने का उत्साह जगाओ गिरिधारी
प्रेम नाव में सैर कराओ गिरिधारी

तुम करूणामय, नित्य मुक्ति की अनुभूति
मुझको  अपने साथ बिठाओ, गिरिधारी

शरण तुम्हारी लेने लायक बन पाऊँ
अनुग्रह कर अधिकार दिलाओ, गिरिधारी

भटक रहा हूँ दूर तुम्हारे सुमिरन से
इस छल के उस पार बुलाओ, गिरिधारी

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ जुलाई १९९८ को लिखी
१६ फरवरी २०११ को लोकार्पित

Tuesday, February 15, 2011

मेरा ध्यान धरो


जय श्री कृष्ण
(कविता नहीं, संवाद श्याम से)

मैंने कहा
समर्पित हूँ
ले लो मुझे
उसकी मुस्कान ने कहा
बिखरे बिखरे हो
पहले गूँथ जाओ
गुलदस्ता बनो
मेरी मुस्कान में घुलने लायक बनो
पर कैसे?
कैसे?
कैसे?
मैं बिखराव की आंधी में से चिल्लाया
कैसे गुंथ जाऊं
कहाँ से पाऊँ एकात्मकता 
कैसे सहेजूँ खुदको
नहीं होता ना कुछ
बार बार यह अस्त-व्यस्त फैलाव
बार बार टुकड़े टुकड़े होकर
ऐसे निस्तेज
जैसे हर खंड अपने आप में
अलग, अर्थहीन सा

हे प्रभु
क्या कोई  तरीका नहीं
तुम्हारे लायक बनने का

मैं तो हार गया ठाकुर

क्या यहीं खंड-खंड पडा
तुमसे दूर
तुमसे अलग
नष्ट हो जाऊंगा मैं

हे प्रभु
करूणामय हो
कृपा करो
प्रभु मुस्कुरा का बोले
'तरीका बताऊँ
बड़ा आसां है
इसलिए तुम उसे अनदेखा 
कर देते हो
अभ्यास करते करते अनायास
अविश्वास से छोड़ देते हो

प्रभु मौन हो गये
मेरी आँखों में प्रश्न बाकी था
प्रभु बोले 
"देखो
मेरा ध्यान धरो
मेरा ध्यान धरो
सचमुच मैं लक्ष्य हूँ
ऐसा मनो
ऐसा पहचानो
तो इस भाव की तरंग में
वह ऊर्जा होगी
जो तुम्हें समन्वित कर देगी
सहज ही
सरस हो जाओगे

मुझसे ध्यान हटा
तो खंडित,
मुझमें ध्यान लगा
तो अखंड- 
समझे!"
"पर क्या मैं कर पाऊंगा ऐसा?"
"सच बताऊँ
तुम सिर्फ ऐसा ही कर पाओगे
और कुछ नहीं कर पाओगे
क्योंकी ये ही तुम्हारा मूल स्वाभाव है
मैं तुम्हें ऐसा ही बनाया है"
और ईश्वर ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ जुलाई १९९८ को लिखी
१५ फरवरी २०११ को ईश्वरार्पण

Monday, February 14, 2011

, ठहरा हूँ पथ बीच

 
हे मनमोहन
श्यामघन
कृपानाथ भवहारी
कहो कहाँ
कैसे भजूँ
तुमको कृष्णमुरारी

क्षमा करो 
जड़ता जडी, ठहरा हूँ पथ बीच
एक दिन
पाऊंगा गति, नाम तिहरा सींच

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
१६ जुलाई 1998

Saturday, February 12, 2011

सर्वत्र मोहन ही मोहन है


एक यह कोरा पल
धो पोंछ कर
कान्हा की चरण रज से
छुआने
रख छोड़ा है
उस पगडण्डी पर
जहाँ से होना है
आगमन गोपाल का

एक यह महीन सी सांस
श्रद्धा के आलोक में
नहला कर
रख छोड़ी है
कान्हा के चिंतन में

अपनी सम्पूर्ण इयत्ता से
अब खुल गया हूँ
श्याम की सघन उपस्थिति 
को अपना लेने

अब जब
मेरे लिए
सर्वत्र मोहन ही मोहन है
मेरे छूटने का स्वर
घुला मौन में
मिट रहा है 
भेद बिंदु और सिन्धु का

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ फरवरी २०११

 

Friday, February 11, 2011

जीवन धन है श्याम रंगा मन

 
जड़ता से जकड़ा हुआ, जोड़ ना पाऊँ हाथ
नयन दीप में प्रार्थना, मुक्ति दो यदुनाथ

जीवन धन है श्याम रंगा मन
रंग गया तो हो गया निर्धन

रंग तिहारा राखना, ओ कान्हा सरकार
क्षमा करो मम मूढ़ता, बरसो तव प्यार

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ और १५ जुलाई १९९८ को लिखी
 ११ फरवरी २०११ को लोकार्पित 

Thursday, February 10, 2011

जब देखूं कान्हा छवि

 
करूणामय की टेर में, भूले जगत विचार
कब ऐसा दिन आएगा, ओ मेरे पालनहार

मिले तुम्हारे प्रेम का, नित्य मधुर आल्हाद
रहे ह्रदय में श्यामजी, सदा तुम्हारी याद

जब देखूं कान्हा छवि, बरसे अमृत मेघ
क्यूं भटके मन बावरे, चल कान्हा की रेख

माखन मिसरी खाय के, करे छाछ का पान
मुस्का मुस्का दे रहा, तृप्ति का वरदान

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ जुलाई १९९८ को लिखी
१० फरवरी २०११ को लोकार्पित

Wednesday, February 9, 2011

आलोक भरा कमरा

 
अक्सर होता है
सुबह होते होते
धुल जाता संताप
नयापन खिलता

स्वयं से नया रिश्ता
उजला
आनंद भरा
उत्साह से सजा

मन
अपने आराध्य के आभार से भरा
महसूस करता
अपनी साँसे
देखता आलोक भरा कमरा
करता उसकी जय जयकार 
 
अशोक व्यास 
१२ जुलाई १९९८ को लिखी
९ फरवरी २०११ को लोकार्पित

Tuesday, February 8, 2011

मनमोहन का रूप निराला


सागर
सूरज
पवन 
उजाला

सारा
जगत
मधुर
मधुशाला

खेल 
करे
अनेक
गोपाला
 
मनमोहन
का 
रूप
निराला

अशोक व्यास
१० जुलाई १९९८ को लिखी
८ फरवरी २०११ को लोकार्पित

Monday, February 7, 2011

मिटे कामना की परछाई

अमृत का आभास दिलाता है सुमिरन
मन का हर एक पथ हो जाता है पावन

कृष्ण सखा बंशी लेकर आया ब्रज वन
घेर खड़े हैं गोप सखा, हुए कर्ण नयन

निर्मल, निर्मल, अति निर्मल, हो शुद्ध रे मन
कृष्ण प्रेम का तब ही तो उमड़े सावन

रे मन चंचल
तज कोलाहल 
पा ले सुख सब
कर प्रेम सरल
तेरे पथ में कभी ना कोई बाधा रे
संग तेरे तो स्वयं कृष्ण और राधा रे

सत्य अंश बिसरा कर कैसे चैन मिले
श्याम दरस करने को ही तो नैन मिले

गा ले गा ले कृष्ण कन्हाई
मिटे कामना की परछाई
कृष्ण छवि में रम कर भाई
और ना कुछ बाकी रह जाई

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जुलाई १९९८ को लिखी
७ फरवरी २०११ को लोकार्पित


Sunday, February 6, 2011

धड़कन कान्हा, कान्हा धड़कन





 कृपा से भर गया आँगन
तन-मन आनंद  मगन

अमृत का स्वाद चखाने 
अधर धरे है मुरली मोहन
 
प्यास देह से पहले वाली
बुझा रहा ये अनुग्रह सावन

परम मौन का दरसन पाया
धड़कन कान्हा, कान्हा धड़कन


अशोक व्यास
३० जून १९९८ को लिखी
६ फरवरी २०११ को परिमार्जन के साथ लोकार्पण




 

Saturday, February 5, 2011

ओ आत्म-सखा!

सत्य 
यह क्षण
उड़ती चिड़िया की बोली

मौन

आनंद का झरना
पत्तों में हवा का संगीत

शांत मन
मुझे
पूर्णता का परिचय देते तुम
ओ आत्म-सखा!
क्यूं साथ नहीं रह सकते
इसी तरह
निरंतर?
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ जून १९९८ को लिखी
५ फरवरी २०११ को लोकार्पित

Friday, February 4, 2011

तुम हो कृपानिधान

 
तुम आंसू मुस्कान दे, छलते हो त्रिपुरारी
मूढ़ हुआ मैं भूलता, तुम ही दुनिया सारी

ओ अच्युत, 
तेरी शरण 
तुम हो कृपानिधान
करो क्षमा
हर भूल को
अपना बालक जान

ना जाऊं 
महिमा तेरी
मैं तो हूँ नादान
करवाओ
करूणामय कान्हा
सुमिरन रस का पान
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ जून १९९८ को लिखी
४ फरवरी २०११ को लोकार्पित


Thursday, February 3, 2011

चेतना की इस नदी में


चेतना की इस नदी में
बह रहे
कितने किनारे टूट कर

हो सभी में
श्याम घन तुम
पर तुम्हारी वो छवि
माधुर्य और विस्तार वाली

वो कि
जिससे आये सब
जिसमें घुलेंगे
या घुले हैं
आज इस क्षण भी

चेतना तुम
यह नदी
इसकी गति तुम

भंवर रचता
छल तुम्हारा
जैसे गैय्या
जीभ से स्पर्श रचती
अपना बछडा चाटती हो

अहा यह क्षण
ना इसके आगे कुछ
ना इसके पीछे कुछ

अशोक व्यास
३ फरवरी २०११

Wednesday, February 2, 2011

श्याम नाम की माखन-मिसरी


श्याम नाम की माखन-मिसरी
जो पाऊँ दिन-रात
कहे मन में धर रहूँ
बैचेनी की बात

श्याम चरण बैठा हुआ
कृपा है अपरम्पार
कहे इस पल से परे
होवे कोई विचार

कृपा कृष्ण की संग ले
घूमूं तीनों धाम
भक्ति पथ पर बढ़ चलूँ
लिए प्रेम निष्काम

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ और १२ जून १९९८ को लिखी
२ फरवरी २०११ को लोकार्पित

Tuesday, February 1, 2011

श्याम सदा है पास


देख सुनहरी धूप को
देख वृहत आकाश
देख मगन मन की छवि
श्याम सदा है पास

बिन बाती दीपक नहीं
श्याम बिना नहीं जीव
महल बना है सांस का
श्याम नाम है नींव
 
उसका कर परनाम मन
धर उसका ही ध्यान
सांस संग बजती सदा
जिस अद्भुत की तान

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० जून १९९८ की लिखी
१ फरवरी २०११ को लोकार्पित