Krishna is the one who 'attracts', plays and invites our consciousness to merge with His infinite consciousness in a very playful manner. This blog is an offering at His feet with prayers for invoking Him and celebrating His all pervading presence of Gopal. Cherishing the memories of contact with Natwar Nagar and surrendering myself at the feet of this ever uplifting, eternal companion, trouble shooter and wisest guide at every step.
Monday, February 28, 2011
Sunday, February 27, 2011
सन्दर्भों की नयी पगडण्डी
कान्हा
अब ये खेल बंद करो ना मेरे साथ
सन्दर्भों की नयी पगडण्डी पर ले जाकर
छुप ही जाते हो तुम तो
और मैं नाचता रहता हूँ
जिस धुन पर
वो तुम्हारी बंशी की धुन नहीं है
अशोक व्यास
अमेरिका
२७ फरवरी 2011
Saturday, February 26, 2011
अस्तित्व भंवर का
जब ये जाना
बात तुम्हारे
समझ गया हूँ
छोड़ गए तुम
बीच भंवर में
साथ चुनौती छोड़ नयी एक
फिर जब माना
समझ मेरी
बिन कृपा तुम्हारी
मुक्त नहीं
कुछ सार सुधा बन कर
बह पाने
तब तुम
ऐसे मुस्काए
कि जैसे है ही नहीं
अस्तित्व भंवर का
और हुआ क्या
लुप्त भंवर है
गति हंस सी
बनी सहचरी
सोच रहा हूँ
मुक्ति का यह
स्वाद अनूठा
खेल तुम्हारा
कितना सुन्दर
अशोक व्यास
अमेरिका
शनिवार, २६ फरवरी 2011
Friday, February 25, 2011
श्याम सुन्दर से प्रीत है
श्याम सुन्दर से प्रीत है
यही हमारी जात
न भावे मनको सखी
कोइ दूजी बात
श्याम पिया का नाम ले
बैठी जमुना तीर
मन में नदिया प्रेम की
वही दिलाये धीर
एक बार की बात हो
तो भी है कुछ बात
बार बार माँगा करून
श्याम प्रभु का साथ
माखन मिस्री खाय के
आये बाल मुकुंद
मुख जो कर घनश्याम का
मिट गयी सारी धुंद
अशोक व्यास
१९ मई १९९७ को लिखी
२५ फरवरी २०११ को लोकार्पित
Thursday, February 24, 2011
Wednesday, February 23, 2011
जब सब हारी
जमुना के तट पर
बाट निहारे
सखियाँ कब से
कान्हा की,
करती जाएँ
तरह तरह से
बतियाँ जब से
कान्हा की
श्याम सुन्दर
चढ़ कदम डाल पर
देखे छुप छुप
मुख सबका
व्याकुल सखियाँ
जान न पाई
आ पहुंचा
कान्हा कब का
जय नन्दलाल
जय श्याम सुन्दर
जब छेड़ दिया
मुरली का स्वर
सब उछल पडी
खुशियाँ उमड़ी
लो आयी आयी
मिलन घड़ी
जय जय केशव
जय गिरिधारी
तुम जानो हो
बतियाँ सारी
सब जीत गयी
जब सब हारी
अशोक व्यास
१३ अप्रैल १९९७ को लिखी
२३ फरवरी २०११ को लोकार्पित
Tuesday, February 22, 2011
Monday, February 21, 2011
लाद न जबरन उसका नाम
गज़ब की कविता
७ अप्रैल १९९७ को लिखी गयी
आज २१ फरवरी २०११ को पढ़ते हुए
ऐसे लगा, जैसे शब्दों ने 'गुरु रूप लेकर थप्पड़' मारा हो
अपना लिखा हम भूल भी जाते हैं
और अपने द्वारा व्यक्त बात को कभी पूरी तरह नया पाते हैं
खास करके जब १४ बरस पहले लिखे ऐसे शब्द सामने आते हैं
- अशोक व्यास
कविता
मौन अश्व पर
रास लगा कर
लाद न जबरन उसका नाम
बंद है तू तो
साथ में अपने
कर देगा उसको बदनाम
सहज नहीं गर
बिना प्रेम के
झूठ बुनेगा सच के नाम
ऐसा कपडा
छेदों वाला
नहीं किसी के आये काम
छोड़ दे मन को
चरने दे कुछ
लेने दे जो चाहे नाम
चलते चलते
देखते रहना
स्वयं पुकारेगा घनश्याम
वो पुकार, जो प्यास भरी है
ले आयेगी उसको पास
वर्ना झूठे पंख लगा कर
सारे उम्र चुगेगा घास
जय श्री कृष्ण
Sunday, February 20, 2011
मन का खेल निराला है
सच्चा- झूठा
जैसा भी है
मन का खेल निराला है
कभी
कंस सा दिखता है ये
कभी बने नंदलाला है
रात अंधेरी
जंगल गहरा
पर चलता मतवाला है
किसने जाना
अहसासों पर
कौन लगाए ताला है
छप्पर टूटा
पंख लहू में
दरवाज़े पर ताला है
उजियारे की
बातें करता
मन पर कितना काला है
छोटे छोटे
पाँव चुराने
लम्बे रस्ते पार करे
बहुत बावरा
ना पहचाने
कब क्यों किससे प्यार करे
ठहरा ठहरा
अपने ही से
ये कितनी तकरार करे
छुपा छुपा कर
रखे बदन को
चुप चुप बहुत पुकार करे
अशोक व्यास
६ अप्रैल १९९७ को लिखी
२० फरवरी २०११ को उजागर
Saturday, February 19, 2011
Friday, February 18, 2011
इतना सा बस ज्ञान करा दो गिरिधारी
फिर अपनी पहचान करा दो गिरिधारी
फिर से अपना ध्यान करा दो गिरिधारी
संग तुम्हारा संग नहीं रहता है क्यों
ये मुश्किल आसान करा दो गिरिधारी
ओ मनमोहन, सबका मन हरने वाले
मोहक बंशी तान सुना दो गिरिधारी
छोड़ तुम्हें अब और कहीं न जाए मन
इतना सा बस ज्ञान करा दो गिरिधारी
तुम रसिया हो, जाने है ये जग सारा
अमृत रस का पान करा दो गिरिधारी
जिसको ध्याये ध्यान तुम्हारा बना रहे
ऐसी गति का ध्यान धरा दो गिरिधारी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ जुलाई १९९८ और १८ फरवरी २०११
Thursday, February 17, 2011
जैसा भी हूँ, अब अपनाओ, गिरिधारी
ओ केशव, बन्शीवाले, मोहन मेरे
काहे तुम इतना तरसाओ, गिरिधारी
दे दे कर अपनी छवि छीने लेते हो
भक्तजनों को यूं न सताओ गिरिधारी
क्षमा करो, गर कोइ त्रुटि की बाधा हो
जैसा भी हूँ, अब अपनाओ, गिरिधारी
तुम मधुरातिमधुर, आनंद अपार प्रभु
यह अमृतरस हमें चखो, गिरिधारी
खेल तुम्हारे बूझ नहीं पाते हैं हम
हर उलझन को दूर भागो, गिरिधारी
नृत्य प्रेम में हो तेरे, क्या अद्भुत है
तन्मयता की तान जगाओ, गिरिधारी
जीने का उत्साह जगाओ, गिरिधारी
प्रेम नाव में सैर कराओ, गिरिधारी
अशोक व्यास
२१ जुलाई १९९८ को लिखी
१७ फरवरी २०११ को लोकार्पित
Wednesday, February 16, 2011
जीने का उत्साह जगाओ गिरिधारी
जीने का उत्साह जगाओ गिरिधारी
प्रेम नाव में सैर कराओ गिरिधारी
तुम करूणामय, नित्य मुक्ति की अनुभूति
मुझको अपने साथ बिठाओ, गिरिधारी
शरण तुम्हारी लेने लायक बन पाऊँ
अनुग्रह कर अधिकार दिलाओ, गिरिधारी
भटक रहा हूँ दूर तुम्हारे सुमिरन से
इस छल के उस पार बुलाओ, गिरिधारी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ जुलाई १९९८ को लिखी
१६ फरवरी २०११ को लोकार्पित
Tuesday, February 15, 2011
मेरा ध्यान धरो
जय श्री कृष्ण
(कविता नहीं, संवाद श्याम से)
मैंने कहा
समर्पित हूँ
ले लो मुझे
उसकी मुस्कान ने कहा
बिखरे बिखरे हो
पहले गूँथ जाओ
गुलदस्ता बनो
मेरी मुस्कान में घुलने लायक बनो
पर कैसे?
कैसे?
कैसे?
मैं बिखराव की आंधी में से चिल्लाया
कैसे गुंथ जाऊं
कहाँ से पाऊँ एकात्मकता
कैसे सहेजूँ खुदको
नहीं होता ना कुछ
बार बार यह अस्त-व्यस्त फैलाव
बार बार टुकड़े टुकड़े होकर
ऐसे निस्तेज
जैसे हर खंड अपने आप में
अलग, अर्थहीन सा
हे प्रभु
क्या कोई तरीका नहीं
तुम्हारे लायक बनने का
मैं तो हार गया ठाकुर
क्या यहीं खंड-खंड पडा
तुमसे दूर
तुमसे अलग
नष्ट हो जाऊंगा मैं
हे प्रभु
करूणामय हो
कृपा करो
प्रभु मुस्कुरा का बोले
'तरीका बताऊँ
बड़ा आसां है
इसलिए तुम उसे अनदेखा
कर देते हो
अभ्यास करते करते अनायास
अविश्वास से छोड़ देते हो
प्रभु मौन हो गये
मेरी आँखों में प्रश्न बाकी था
प्रभु बोले
"देखो
मेरा ध्यान धरो
मेरा ध्यान धरो
सचमुच मैं लक्ष्य हूँ
ऐसा मनो
ऐसा पहचानो
तो इस भाव की तरंग में
वह ऊर्जा होगी
जो तुम्हें समन्वित कर देगी
सहज ही
सरस हो जाओगे
मुझसे ध्यान हटा
तो खंडित,
मुझमें ध्यान लगा
तो अखंड-
समझे!"
"पर क्या मैं कर पाऊंगा ऐसा?"
"सच बताऊँ
तुम सिर्फ ऐसा ही कर पाओगे
और कुछ नहीं कर पाओगे
क्योंकी ये ही तुम्हारा मूल स्वाभाव है
मैं तुम्हें ऐसा ही बनाया है"
और ईश्वर ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ जुलाई १९९८ को लिखी
१५ फरवरी २०११ को ईश्वरार्पण
Monday, February 14, 2011
Saturday, February 12, 2011
सर्वत्र मोहन ही मोहन है
एक यह कोरा पल
धो पोंछ कर
कान्हा की चरण रज से
छुआने
रख छोड़ा है
उस पगडण्डी पर
जहाँ से होना है
आगमन गोपाल का
एक यह महीन सी सांस
श्रद्धा के आलोक में
नहला कर
रख छोड़ी है
कान्हा के चिंतन में
अपनी सम्पूर्ण इयत्ता से
अब खुल गया हूँ
श्याम की सघन उपस्थिति
को अपना लेने
अब जब
मेरे लिए
सर्वत्र मोहन ही मोहन है
मेरे छूटने का स्वर
घुला मौन में
मिट रहा है
भेद बिंदु और सिन्धु का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ फरवरी २०११
Friday, February 11, 2011
Thursday, February 10, 2011
जब देखूं कान्हा छवि
करूणामय की टेर में, भूले जगत विचार
कब ऐसा दिन आएगा, ओ मेरे पालनहार
मिले तुम्हारे प्रेम का, नित्य मधुर आल्हाद
रहे ह्रदय में श्यामजी, सदा तुम्हारी याद
जब देखूं कान्हा छवि, बरसे अमृत मेघ
क्यूं भटके मन बावरे, चल कान्हा की रेख
माखन मिसरी खाय के, करे छाछ का पान
मुस्का मुस्का दे रहा, तृप्ति का वरदान
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ जुलाई १९९८ को लिखी
१० फरवरी २०११ को लोकार्पित
Wednesday, February 9, 2011
Tuesday, February 8, 2011
Monday, February 7, 2011
मिटे कामना की परछाई
अमृत का आभास दिलाता है सुमिरन
मन का हर एक पथ हो जाता है पावन
कृष्ण सखा बंशी लेकर आया ब्रज वन
घेर खड़े हैं गोप सखा, हुए कर्ण नयन
निर्मल, निर्मल, अति निर्मल, हो शुद्ध रे मन
कृष्ण प्रेम का तब ही तो उमड़े सावन
रे मन चंचल
तज कोलाहल
पा ले सुख सब
कर प्रेम सरल
तेरे पथ में कभी ना कोई बाधा रे
संग तेरे तो स्वयं कृष्ण और राधा रे
सत्य अंश बिसरा कर कैसे चैन मिले
श्याम दरस करने को ही तो नैन मिले
गा ले गा ले कृष्ण कन्हाई
मिटे कामना की परछाई
कृष्ण छवि में रम कर भाई
और ना कुछ बाकी रह जाई
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जुलाई १९९८ को लिखी
७ फरवरी २०११ को लोकार्पित
Sunday, February 6, 2011
Saturday, February 5, 2011
Friday, February 4, 2011
Thursday, February 3, 2011
चेतना की इस नदी में
चेतना की इस नदी में
बह रहे
कितने किनारे टूट कर
हो सभी में
श्याम घन तुम
पर तुम्हारी वो छवि
माधुर्य और विस्तार वाली
वो कि
जिससे आये सब
जिसमें घुलेंगे
या घुले हैं
आज इस क्षण भी
चेतना तुम
यह नदी
इसकी गति तुम
भंवर रचता
छल तुम्हारा
जैसे गैय्या
जीभ से स्पर्श रचती
अपना बछडा चाटती हो
अहा यह क्षण
ना इसके आगे कुछ
ना इसके पीछे कुछ
अशोक व्यास
३ फरवरी २०११
Wednesday, February 2, 2011
Tuesday, February 1, 2011
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