Thursday, September 30, 2010

निर्मल आलोक

 
श्री कृष्ण उवाच 
"ताल नई
जब चरण जगाये
थाप करें भू पर आनंदित

उसके स्वर में
तन्मय हो तुम
बनो गीत ऐसा
जो मेरी बंशी गाये
वह निर्मल आलोक बनो तुम
जिसको मुखरित कर
निज आनंद बढे नित मेरा"
 
 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
३० जून ०४ को लिखी
३० सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, September 29, 2010

रस लीला का

 
खेल खेल,
क्रीडा करने को 
मिला है जीवन,
बंध मत 
मत बंध
किसी खेल से,
रस लीला का
चख ले तू
बन कर नित मेरा
 


Tuesday, September 28, 2010

प्यारा नन्द किशोर

 
चले घुटनों पर सांवरा
हर्ष उमड़ता जाय
'आ आ' कहती यशोदा
पीछे हटती जाय

मैय्या से आँखे बचा
चले माखन की ओर
चंचल है सुन्दर, चपल
प्यारा नन्द किशोर

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका  
जून २१, २००४ को लिखी
२८ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Sunday, September 26, 2010

करूणामय दृष्टि

 
मन प्रेम बना सत्कार करे
कान्हामय जग से प्यार करे
वह खेल दिखाए नए नए
करूणामय दृष्टि दुलार करे

अशोक व्यास
जून २, २००४ को लिखी
२७ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

जा ना पाऊँ श्याम तक


प्रेम मगन हो ना सकूं
खींचे जगत बाज़ार
कहाँ सखी, कैसे मिले
श्याम मेरा सुकुमार,

हल्की-हल्की चाह की
लिए हुए यह प्यास 
जा ना पाऊँ श्याम तक 
बैठा रहूँ उदास 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
जून १, २००४ 

Saturday, September 25, 2010

एक-एक शब्द में कान्हा है

मंगलवार
मई ८, २००७

जय श्री कृष्ण
कान्हा ने आते ही मटकी उठा कर उसमें झांकते हुए
मुझसे पूछा
"कहाँ है शब्दों का माखन, जब तुम बिलोते हो
तो मुझे बड़ा स्वाद लगता है'
मैं तो एकदम ठिठक गया
शब्दों का उतरना बन्द नहीं पर बहुत मद्धम हो गया था,
शब्द मथने की पात्रता भी क्षीण थी,
विचार- भाव-चिंतन, सबकी लौ धीमी थी

कान्हा का आगमन भी अपेक्षित ना था
यूं लग रहा था संसार ने मुझे एकाकी छोड़ दिया है,
कान्हा की आव-भगत का उत्साह और तैय्यारी भी ना थे 
पर कान्हा आ गया है
उसे तो सब मालूम ही होगा
एक क्षण में कई विचार मन से तीर की तरह निकले
तत्काल स्फूर्तीमान हो कान्हा के लिए जल ले आया
पिछवाड़े में एक पुष्प का पौधा था
तुरंत एक पुष्प लाकर कान्हा के हाथ में थमाया
रसमयता का संचार हुआ
तो शब्द वीणा लेकर बैठ गया
कान्हा मुस्कुराते हुए मरी ओर देखने लगा
तो वीणा से कुछ धुन फूटने लगी
हाथ चलने लगे,
नयनों से प्रेमाश्रु छलके 
भाव में अमृत-सरिता प्रकट हो कान्हा के चरणों की
ओर प्रवाहित होने लगी
मुस्कुराते हुए कान्हा ने
बंशी को अपने अधरों से लगा लिया
शब्द वीणा के साथ मुरली की धुन का संगम
अपार-सौंदर्य प्रकट कर रहा था
एक क्षण वो आया,
जब शुद्ध उजाले में एकमेक मैं ने
इस अनुभूति में स्वयं को
विलीन होते पाया 
जिसमें शब्द वीणा, मैं, कान्हा और
कान्हा की मुरली सब एक हो गए थे
कान्हा की करूणामय मुस्कान में आश्वस्ति का
अक्षय स्त्रोत था
आत्मीयता की पावन ऊष्मा से तृप्त हुए मन के सौभाग्य का बखान कौन करे
अद्वितीय संगीत लहरे थमी
तो शब्द वीणा कान्हा के चरणों पर धर कर साष्टांग दंडवत किया
कान्हा ने अपने कर से उसका स्पर्श कर कहा
इसे अपने पास रखो
इसमें छुप कर मैं भी तुम्हारे साथ बना रहूँगा
एक-एक शब्द में कान्हा है
एक-एक शब्द में सांस है
एक-एक सांस में कान्हा है
कान्हा ने मुझे जीवन दिया है
और सारा जीवन उसे सौंप कर मैं कान्हा को जी रहा हूँ
जय श्री कृष्ण
ॐ आनंद


लोकार्पण तिथि- सितम्बर २५, २०१०

Friday, September 24, 2010

मधुर स्पर्श

 
आलिंगन भर कर कान्हा ने
माथे पर माथे से अपने
किया मधुर स्पर्श

श्वेत अश्व सी अद्भुत किरणें
जगा प्रेम संग हर्ष

आल्हादित मन एकटक देखे
कान्हा अपरम्पार

शरण श्याम की लेने को
मन आज हुआ तैयार

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० अप्रैल ०७ को लिखी
२४ सितम्बर २००७ को लोकार्पित

Thursday, September 23, 2010

श्याम दरसन

 
गोविन्द धाम मन बसा मधुर
गोविन्द धाम मन बना मधुर

अनुपम केशव की कृपा, सखा
मुरलीधर मन में बसा मधुर


मन वृन्दावन आनंद सघन
चल श्याम गली तू प्रेम मगन

सौरभ कान्हा, जीवन उपवन
कर हर एक सांस श्याम दरसन

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ अप्रैल और २६ अप्रैल २००७ को लिखी
२३ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, September 22, 2010

आनंद मंगल दिव्य दिवाकर


समय श्याम संग सुन्दर शाश्वत
श्याम समय संग सत्य अनावृत 

आनंद मंगल दिव्य दिवाकर
उजली किरण श्याम गुण गाकर

प्रेम प्रसार परम पद मिर्मल
रहो श्याम सेवा में हर पल

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० अप्रैल २००७  को लिखी
२२ सितम्बर २०१० को लोकार्पित 

Tuesday, September 21, 2010

'करो अर्पित तन-मन'

 
कान्हा मुख मंडल
मौन सघन
ज्यूं ठहर गया
कोई चिंतन

धीरे-2 मुस्कान रश्मियाँ
प्रकट भई
 
मैंने पूछा 
कुछ कहो सजन
कान्हा ने बिना अधर खोले
ये कहा
'करो अर्पित तन-मन'
 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ अप्रैल २००७ को लिखी
२१ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Monday, September 20, 2010

हर एक क्षण है दिव्य मनोहर


परम प्रेम सागर है नटवर
नित्य निरंतर आनंद निर्झर

अनुगृह सिंचित मन के भीतर
करूणामय की छटा मनोहर

साँसों में एक अमर कथा है
हर एक क्षण है दिव्य मनोहर


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ मार्च २००९ को लिखी
२० सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Sunday, September 19, 2010

कान्हा के गीत

 
बतला मुझको यसुमति
उस रस्सी का नाम
उर उखल जिससे कभी
बाँध सकूं घनश्याम

कृष्ण रची गोयें नयी
कृष्ण रचे नव-ग्वाल
लीला प्रभु व्रजराज की
रोक सके ना काल

श्याम तिहारे दरस की
प्यास सांस की आस
दिखे बिना ही सांवरा
रचा रहा है रास

सुमिरन पवन सुना रही
वृन्दावन संगीत
गायें, आ मिल कर सखी
हम कान्हा के गीत

अशोक व्यास
न्यूयार्क
जुलाई ९, ९४ को लिखी
१९ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Saturday, September 18, 2010

फिर बुला रहा है कान्हा



ऐसा लग रहा है
घर लौट आया है मन
फिर बुला रहा है कान्हा
दिखाई दे रहा वृन्दावन

फिर प्रेम पवन आई
फिर आस्था से आलोकित मन
फिर आनंद बरखा मुझमें
जाग्रत अंतस में श्रद्धा का सावन

अशोक व्यास
२४ जून २००७ को लिखी
१८ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Friday, September 17, 2010

नदिया सागर संगम


मन मगन प्रेम मनमोहन का
उतरे आँगन आनंद परम

यह प्रीत मेरे नटनागर की
धन अनुपम, पावन और उत्तम

चल श्याम सखा का मुख देखें
देखें नदिया सागर संगम

वह क्रीडामय, मेरा गिरिधारी
देखें जग उसके होकर हम

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ जून २००७ को लिखी
१७ सितम्बर २०१० को लोकार्पित 

Thursday, September 16, 2010

यह सारा विस्तार


मैं ही तो मन हूँ

मन में यदि मनमोहन का नित्य निवास करवाऊं
तो मन में धरे संस्कारों को कहाँ बहाऊँ

कैसे अपनी स्मृतियों और सपनो से
पीछा छुडाऊँ
कहीं ऐसा तो ना होगा, मैं त्रिशंकू
की तरह लटक जाऊं

कान्हा ने हँस कर आश्वासन दिया
"जब मैं आऊँगा
अपने साथ समन्वय, शांति, समृद्धि, प्रेम, आनंद
सब साथ लाऊंगा
तोड़ दो बारीक सा यह मैं का तार 
अपना लो, यह सारा विस्तार

एक कड़ी भरोसे की रख कर
आगे आ जाओ
पहले खो दो स्वयं को
फिर मुझे पाओ

इस संशय, ऊहापोह में
जन्म व्यर्थ ना गंवाओ
अपने आत्म-वैभव का गान 
दूर दूर तक पहुँचाओ"
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
९ अप्रैल २०१० को लिखी कविता का अंशा
१६ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, September 15, 2010

मोहन की लीला मधुर



कान्हा की मुस्कान है
और भक्ति की खान
समृद्धि अतुलित मिली
जान सके तो जान

आनंद सुरभि तज दई
धरा विकट सा स्वांग
इच्छा अग्नि जल रहे
बढ़ा मांग पर मांग

मोहन की लीला मधुर
रसमय दिव्य महान
बडभागी है वह मनुज 
जो करे दिव्य रसपान

अशोक व्यास
५ जनवरी २००७ को लिखी 
१५ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Tuesday, September 14, 2010

कृष्ण कृपा की डोर

 
 
मन है चंचल
घनश्याम शरण बिन
भटके चहुँ दिस ओर,
 
कभी साथ ले चले 
किसी घटना का 
कोई छोर,
 
इसे शांत तल तक 
ले जाए
कृष्ण कृपा की डोर, 

करो कृपा, केशव
ना बीते
तव सुमिरन की भोर

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२९ अप्रैल २०१० को लिखी
१४ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Monday, September 13, 2010

आधार तुम्हारा

 
माँ जग जननी
प्यार तुम्हारा
पार लगाए

माँ करूणामय
सार तुम्हारा
प्यार जगाये

माँ जगजननी 
रोम रोम से 
तू ही गाये
 
अहा! दिव्य 
हर सांस
तुम्हारी शोभा गाये
 
माँ जगजननी
सुन्दर है
संसार तुम्हारा
हर पग
पावन करता है
आधार तुम्हारा


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
१३ अप्रैल २००७ को लिखी  
१३ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Sunday, September 12, 2010

सुन प्रेम निरंतर कल कल कल
मन हुआ मधुर, रसमय शीतल

यह श्याम मनोहर कृपा सरस
चिन्मय, मधुमय, साँसे प्रतिपल

चल धेनु चरैय्या संग चलें
अमृत सरिता बन बहें सरल 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ अप्रैल २३०७ को लिखी
१२ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Saturday, September 11, 2010

कृपा सघन मन, फिर भी ऐसा
मांगे प्यार, प्रशंसा, पैसा

जिस मन सतत प्रेम कान्हा का
शुद्ध कनक मन होगा कैसा

अशोक व्यास
२८ अप्रैल २००७ को लिखी
११ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Friday, September 10, 2010

मुक्ति पथ दिखलाओ

 
 
अपनी असमर्थता लिखने में भी
प्रमाद है
सत्य में ईश्वर है तो फिर कैसा
अवसाद है
सबसे पहले वही है जो
सबके बाद है
सच्छा सुख देने वाली
शाश्वत की याद है

जिसकी स्मृति से आल्हाद है
जिससे हर बस्ती आबाद है
उसी नंदनंदन को
आज ये नई फ़रियाद है

मुक्ति पथ दिखलाओ, बंधन से छुडाओ
समर्पण हो निरंतर, ऐसा पाठ पढ़ाओ
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१० अप्रैल २००७ को लिखी
१० सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Thursday, September 9, 2010

अब क्या मांगूं श्याम से

परिपूरण परमात्मा
तेरे चरण निवास
अब क्या मांगूं श्याम से
पूरी हो गयी आस

सेवा सुन्दर व्रत मना
करता जा निष्काम
छोड़ जगत की चाकरी
गाये जा घनश्याम

चल जमुना के तीर पर
देह लपेटे धूल
जहां श्याम चरणन पड़े
वहीं मिलेगा मूल

अशोक व्यास
मंगलवार, १७ अप्रैल २००७ को लिखी
गुरुवार, ९ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, September 8, 2010

मंगल उजियारा

(चित्र- ललित शाह)
 
मन में उल्लास तुम्हारा है
जो है, विश्वास तुम्हारा है

हो रहा पार हर बाधा के
जो है, परताप तुम्हारा है

है ज्योति तुम्हारी करूणा से
जो है, मंगल उजियारा है

सुन कर बंशी की धुन, मोहन
अब कृपामयी जग सारा है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ मयी २०१० को लिखी
८ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Tuesday, September 7, 2010

केशव प्रेम पराग

सत्य तुम्हारा रूप है
सत्य तुम्हारा भाव
प्यार तुम्हारा सत्य है
और नहीं कुछ चाव

जीवन रस छल छल बहे
लिए राग-अनुराग
खींचे मधुकर मंगल मन
केशव प्रेम पराग

जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ मई २०१० को लिखी
७ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Monday, September 6, 2010

हर धड़कन मुरली तान सजे

मन वृन्दावन, आनंद सुमन
मुस्कान अधर धर नन्द नंदन
हर्षित गैय्या, पुलकित ब्रजजन
शाश्वत मस्ती, ब्रजराज शरण

मन झूमे, नाचे, गान जगे
हर धड़कन मुरली तान सजे
लो कृपा मनोहर हँसे मधुर
ज्यूं रोम-रोम में आन बसे

मन  वृन्दावन, आनंद सुमन
आल्हाद अहा! बांकी चितवन
निर्मल, शीतल, सुन्दर उज्जवल
मेरे सखा, स्वयं गिरिराज धारण
जय हो, जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास, 
न्यूयार्क, अमेरिका

२६ जून २००७ को लिखी
६ सितम्बर २०१० को लोकार्पित 

Sunday, September 5, 2010

मन मगन प्रेम मनमोहन का

 
मन मगन प्रेम मनमोहन का
उतरे आँगन आनंद परम 

यह प्रीत मेरे नटनागर की
धन अनुपम, पावन और उत्तम
 
चल श्याम सखा का मुख निरखें 
देखे नदिया सागर संगम

वह क्रीडामय मेरे गिरिधारी
जग देखें उसके होकर हम 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ जून २००७ को लिखी 
५ सितम्बर २०१० को लोकार्पित


Saturday, September 4, 2010

कान्हा का संगीत


रे मन बारम्बार रट
कान्हा का प्रिय नाम
अमृत सागर रम सदा 
कृष्णमयी  अविराम

जीवन पथ है सांकरा
छोटे छोटे लोग
बिना प्रभु के मान के
राख सभी संयोग 

ढोल बजा कर नाचता
जाए मस्त फ़कीर
अपनी झोली ले चले
सब महलों की पीर

भक्ति का वरदान ले
पाया सब संसार
सांस सांस पुलकन जगे
बाजे सुमिरन तार

उसकी हाथों में धरे 
यश -अपयश, हर बात
हर अनुभव मिलता रहे
वही मुझे दिन-रात

ओ रे लाला नन्द के
बंशी वाले चितचोर 
बिसरा कर तुमको चलूँ
कभी ना हो वह भोर

मक्खन की नदिया बहे
कान्हा की मुस्कान
दरस किये करता राहे
मन आनंदित स्नान

ब्रज की रेती में मिले 
कान्हा का संगीत
घुल जाऊं हर उस जगह
जहां मेरा मनमीत

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ मार्च १९९५ में  लिखे 
४ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

अशोक व्यास
 

Friday, September 3, 2010

चेतना सींचे सुमिरन

 
बीज है
प्रकाशवृत्त

चेतना सींचे
सुमिरन

लहलहाए
आनंद
मौन टेकरी 
प्रेम पवन

बैठूं 
सुरभित
मधुर गंध बन
उड़ता जाऊं
बैठे बैठे

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
 
२४ जनवरी १९९५ को लिखी
३ सितम्बर २०१० को लोकार्पित

Thursday, September 2, 2010

मैं गाऊँ गोपाल को

श्याम नाम जपता रहे 
मन का मधुर सितार
हर अनुभव अंगुली छुए
जगे नाम रस धार

मैं गाऊँ गोपाल को
दो ऐसा वरदान
भक्तिभाव भर दो गुरु
करूण याचना मान
अशोक व्यास 
५ फरवरी १९९५ को लिखी
२ सितम्बर २०१० को
जन्माष्टमी के पर्व की बधाईयों के साथ
लोकार्पित
जय श्री कृष्ण

Wednesday, September 1, 2010

लय अक्षय की

 
लय अक्षय की
बनी रहे
मन
ऐसा कर बर्ताव,
 
ऐसा पथ अपना 
जिस पर
कान्हा संग
बढे लगाव

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ जनवरी २००६ को लिखी
१ सितम्बर २०१० को लोकार्पित