Wednesday, June 30, 2010

तुम्हारे हिस्से का गीत


श्री कृष्ण वचन -
"कर्म करने से जीवन खिलता है
सीखने के साथ साथ संतोष मिलता है

अगर तुम्हारे हिस्से की 
सारी तृप्ति मैं ही पा जाऊंगा 
तो फिर तुम्हारे जीवन की सुन्दरता 
तुमको कैसे दिखलाऊँगा 

तुम्हारे हिस्से का गीत 
तुमको ही गाना है
पहले अपने तक जाना है
फिर मेरे तक आना है"


१७ मार्च २००४ को लिखी पंक्तियाँ
३० जून २०१० को लोकार्पित

Tuesday, June 29, 2010

कान्हा संग नहीं है वैसे


जगमग जाग्रत
ताल तलैय्या
करो स्नान
धो लो हर कल्मष,
दिव्य सुधा रस
पी पी
जी लो
छूटे आपा-धापी बरबस


उसके नयनों में
फिर देखा
धरा स्वयं को सम्मुख उसके
हाथ थाम कर
लिए चला वह
बोला बीती धरा बिसारो
भागो संग-संग मेरे ऐसे
नृत्य बने
उल्लास जगाता
हर पग 

 बन कर हँस 
चुगेंगे
नित्य सुनहरी आभा वाली
अनुभूति के सुन्दर मोती


भाग भाग
संग कृष्ण सखा के
जगा पुनः उल्लास अनछुआ

सुन्दरता में निखरा मन ले
सहसा बोध हुआ कि
कान्हा संग नहीं है वैसे
जैसे था, जब साथ भगा था मेरे

नभ में है
है शांत पवन में
साँसों में है
है कण कण में
बैठ गया चुपचाप
मौन में 
भय की एक किरण 
यूँ बोली
छूट गया क्या
वह सब
जिससे भाग रहा था

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० अप्रैल २००४ को लिखी पंक्तियाँ
२९ जून २०१० को लोकार्पित

Monday, June 28, 2010

उसका दरसन करे समन्वित


यह उल्लास अनूठा उतरे
छम छम
सरगम 
प्रेम पगी यह
सुने सांवरा
मेरा होना सफल हो रहा
अब यह बात
नया उजियारा
लिए चली है
दिशा दिशा में
हँस हँस खोले
सुन्दरतम के 
चिन्ह अनछुए
लो तुम ले लो
इस क्षण में 
वह
जिसको छूकर
जागे जीवन
हर एक ध्वनि में
गुंथा हुआ जो
मुक्त अलौकिक

उसका दरसन
करे समन्वित

सार छलक कर
चिर आनंदित 
मुझे बनाए

पहुँच क्षितिज तक
अपनापन ले

खरा प्रेम बन कर प्यारे
तू जब बह जाए
गगन धरा से मिलने तब
खुद ही झुक आये 


अशोक व्यास 
अप्रैल २७, २००४ को लिखी 
२८ जून २०१० को लोकार्पित 

Sunday, June 27, 2010

छल कान्हा का भाये


सच बोले कान्हा कभी
ऐसा दिन ना आये
मोहे तो ओ री सखी
छल कान्हा का भाये

कभी दरस दे सांवरा 
कभी, कहीं छुप जाए
बात बताये बात बिन
छेड़ करे, मुस्काये

वो अब क्या बोलूँ इसे
जुडा नहीं कुछा नाता
फिर भी मन ऐसा हुआ
बस कान्हा कान्हा गाता

चुरा लिया सब ध्यान तो
अब मिलने ना आये
जित जाए है सांवरा
मन मेरा उत जाए

कहा निशानी दे कोई
हंसा बांसुरी वाला
बंशी से बेसुध किया
छोड़ गया मतवाला

क्या उसकी महिमा कहूं
किसे सुनाऊँ बैन
मौन आनंदित कर रहे
नित कहाँ के नैन


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२७ जून २०१०, रविवार को लोकार्पित किये गए ये शब्द
कान्हा की कृपा से उतरे  अप्रैल २६, २००४ को

Saturday, June 26, 2010

मौन है सुन्दर, कृपा नगर है




मौन है सुन्दर
कृपा नगर है
सांस श्याम संग
आठ पहर है
गोविन्द गुण की
प्रेम लहर है

सब जागे है
ले उजियारा
पथ प्रदीप्त है
पावन प्यारा

दिव्य धरा है
चिद अम्बर है
क्षण क्षण शाश्वत
सतत मुखर है

अमृत घट
लाये हैं गुरुवर
प्यासा हूँ
पीना है छककर

गुरु दृष्टि से पीने वाला
हो जाता ऐसा मतवाला

पग-पग प्रकटित दिव्य डगर है
अतुलित वैभव वाला घर है

मौन है सुन्दर, कृपा नगर है
सांस श्याम सुमिरन से तर है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ अप्रैल २००४ को लिखी
२६ जून २०१० को लोकार्पित

Friday, June 25, 2010

एक अबोला क्षण


शब्द कृपा है
'कृपा' शब्द है
आनंद का यह भाव अनूठा
परे शब्द के
रूप, रस, स्पर्श, गंध के
परे काल से भी
यह है जो
एक अबोला क्षण
जिसमें
कान्हा के संग हुआ
निर्द्वंद
निरामय
इस असीम का छोर 
छुआ फिर
धन्य हुआ
बोलूँ जय जय

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ अप्रैल २००४ को लिखी
२५ जून २०१० को लोकार्पित

Thursday, June 24, 2010

जो कान्हा संग खेले निसदिन


आनंदामृत श्याम लुटाये
ग्वाल बाल को खूब खिलाये
जो कान्हा संग खेले निसदिन
उसकी महिमा कौन बताये


अशोक व्यास

१४ मार्च २००४ को लिखी पंक्तियाँ
२४ जून को लोकार्पित 

Wednesday, June 23, 2010

उसकी करूणा से निखर रहा


मन तृप्त तृप्त, आनंद युक्त
करता है कविता छंद मुक्त
लेकर उड़ान का चित्र मगन
है ध्यानमयी सम्पूर्ण गगन


आनंद सार, नंदलाल संग
जीवन पुकार नंदलाल संग

उसकी करूणा से निखर रहा
संतोष धरे हर काल रंग

१२ मई और २७ मई २०१० को लिखी
२२ जून २०१० को लोकार्पित

Tuesday, June 22, 2010

छलकाए प्रीत की मधुशाला


मन अनुभव आंगन खेल खेल
करे श्याम सुन्दर से नित्य मेल

आनंद परम अब छाया है
करबद्ध खड़ी अब माया है
अब रोम-रोम में, कण-कण में
दरसन विराट का पाया है

जय जय गोविन्द, गोपाल हरी
प्रभु मूरत, तन मन में उतरी
मन मोहन रंग तरंग लिए
हो गयी दिव्य, सारी नगरी

वो नटवर नागर, नंदलाला
छलकाए प्रीत की मधुशाला
नयनों से जब मुस्काये है
करे तृप्त, बना दे मतवाला


अशोक व्यास
माय ६, २००९ को लिखी
२१ जून २०१० को लोकार्पित

Monday, June 21, 2010

एक विस्तृत मौन


कृष्ण नहीं दिखाई दिए
दूर दूर तक
,कोई भी ना दिखता था

पवन थी
आकाश था
पर्वत थे
और एक विस्तृत मौन
जिसके साथ
एक मेक होकर
जिस क्षण
लगा था मुझे
'नहीं हूँ मैं भी कहीं'
तब सहसा एक झलक दिखी थी
मुस्कुराते हुए कृष्ण की


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ मई २००९ को लिखी
२१ जून २०१० को लोकार्पित

Sunday, June 20, 2010

चल गुणातीत तक जाना है


चल निकल, निकल चल, चल रे चल
सुन प्रेम नदी बहती कल कल

अरे बीत रहा यूँ पल पल पल
कान्हा ना हो जाए ओझल

सब जाने हैं, वो है चंचल
करता उसका सुमिरन निर्मल

यह लीपा-पाती छोड़, ना सज
भाये कान्हा को मन निश्छल

चल निकल, बुलाये बंशी धुन
जो सुन्दरतम है उसको चुन

चल गुणातीत तक जाना है
क्यूं देखे अपने गुण-अवगुण

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ नवम्बर २००७ को लिखी
२० जून २०१० को लोकार्पित


Saturday, June 19, 2010

मिला रास्ता जीने का


छोड़ी पटरी, भटका मन
झाड़ कंटीले, उलझा मन

बहुत थका, व्याकुल व्याकुल
नहीं कहीं बेखटका मन

चिपका लिया अधूरापन
लगा डराने तब दर्पण

खोई ठौर ठहरने की
भागा दिशाहीन जब मन

चमक गयी जब शब्दों से
जंगल सा था तब आँगन

मिला रास्ता जीने का
कान्हा जब लाये माखन

फिर से मालामाल हुआ
पाकर गीतामृत का धन

अशोक व्यास 
१७ नवम्बर २००७ को लिखी
१९ जून २०१० को लोकार्पित


Friday, June 18, 2010

बरसे बरसे कृपा तुम्हारी


हर उलझन के पार श्याम है
हर उलझन का सार श्याम है
साँसों में जब श्याम बसा हो
सारा जीवन दिव्य धाम है

केशव, करूणामय गिरिधारी
बरसे बरसे कृपा तुम्हारी
सेवा लायक बन पाऊँ मैं
कर दो ऐसा कृष्ण मुरारी

अशोक व्यास
१३ नवम्बर २००७ को लिखी
१८ जून २०१० को लोकार्पित

Thursday, June 17, 2010

दिव्य सुधारस पान करा दो ओ साईं


दिव्य सुधारस पान करा दो ओ साईं
दूर हटा दो दुःख-दारिद्र्य की परछाई

अपना लो ऐसे ज्यूं सागर में बूँद मिले
अहंकार से छुड़ा करो पूरण साईं

तुम कण कण में बसे हुए यह याद रहे 
परम प्रेम रस पान करा दो ओ साईं

राम-श्याम तुम, शिव-शक्ति तुम
तुमसे शाश्वत ज्योति मुखर फिर हो आई

दिव्य सुधारस पान करा दो ओ साईं

अशोक व्यास
१२ नवम्बर को लिखी २००७ में
लोकार्पित हुई २०१० के जून माह की १७ तारिख को

Wednesday, June 16, 2010

जल कर उजियारा देता है


मन में मंगल
प्रेम छलाछल
दीप कहे रख
मन नित उज्जवल

चल चल चल चल
मस्त चला चल
सुमिरन का
उजियारा आँचल 
जल कर उजियारा देता है
क्या नन्हा दीपक है पागल?

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ नवम्बर ०७ को लिखी
१६ जून २०१० को लोकार्पित

Tuesday, June 15, 2010

ये कैसा सफ़र है


कान्हा!
सत्य क्या है, कहाँ गया 
झूठ ही मिला, जहाँ गया

या गलत चश्मा था आँख पर
मैं जब जब यहाँ-वहां गया

बारूद पर घर है
इसका भी डर है

हवा में ज़हर है
ये कैसा सफ़र है

कान्हा!
सच्ची है या झूठी है ये आस
कि सहारा देता है तुम्हारा विश्वास
क्या करूं, संबल है बस एक ये प्यास
कि ह्रदय में हो जावे तुम्हारा निवास


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ नोव २००७ को लिखी
१५ जून २०१० को लोकार्पित

Monday, June 14, 2010

भज मन प्रेम प्रवाह अनवरत


भज मन प्रेम प्रवाह अनवरत
मनमोहन सुमिरन का ले व्रत

ज्योति जगा ले
                      दिव्य दरस की
अपना ले नित ज्योतिर्मय पथ 
सांस सांस जिससे नित आये
पग-पग गुण जब उसके गाये
सहज कृपा रस वह बरसाए
उसको ध्याये, उसको पाए

सारी सृष्टि, उसकी सूरत
भज मन प्रेम प्रवाह अनवरत 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० अक्टूबर २००७ को लिखी
१४ जून २०१० को लोकार्पित

Sunday, June 13, 2010

Hai Kaun Disha Gantvya kaho


वृन्दावन में एक मोड़ खड़ी
तकती सूनी पगडंडी को
सूनी आंखे ले गोप सखी
सोचे 
क्यूं श्याम नहीं आये?


ले पवन पंख
भागे उमंग
प्यासी हिरनी
छाया के संग

अनुभव गंगा से पूछ रही
क्यूं छोड़ जाता शिव की निकली
है कौन दिशा गंतव्य कहो?


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ अक्टूबर २००७ को लिखी
१३ जून २०१० को लोकार्पित

Saturday, June 12, 2010

जो है सुख सागर


मन अभी तक
रुका है यहीं तक

नहीं उगे हैं पर
नहीं मिला गगन घर
रुका है धरती पर
जड़ता अपना कर

मन उठो ना
मन उड़ो ना
मन छोडो चक्कर
आगे बढ़ो ना

मत बैठो सकुचा कर
आये नटवर नागर
हरते संताप सब
कृपारस बरसा कर

मन को नहला कर
कान्हा धुन गा कर
शरण आओ उसकी 
जो है सुख सागर


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२७ अक्टूबर २००७ को लिखी
१२ जून २०१० को लोकार्पित

Friday, June 11, 2010

वह ना कही, जो बात हुई


मन ठाकुर चरणारविन्द  आश्रय पायो
भयो मगन, निर्मल होकर अति हर्षायो 

ले तान अलौकिक आनंद की 
यसुमती सुत मोसे बतियायो

तब, भूख प्यास बिसरी सारी
लीला करने शाश्वत आयो 
जो कहूं, बावरी लगूँ, लगूँ तो लगूँ
ले सुन, मोको कान्हा ने अपनायो 

मन वीणा, वाध्य, मृदंग धरा
छुप छुप आयो, खुल कर गायो

मन शीतल, चन्दन, लेप सरस
झूमे वह, रोम रोम, हँस हँस

जो शुद्ध सनातन, सुन्दरतम
बन श्याम करे मन से संगम

अचरज आयो
मन हर्षायो
मत कह्यो किसी से
पर तू सुन
उसकी कोई थाह नहीं पायो
पर वही प्रेम वंशी लेकर
उर में आयो, मन हर्षायो

ले इतनी बात कही मैं ने
पर वह ना कही, जो बात हुई

जो बात ना सुनने कहने की
जो बात शरण में रहने की

जो बात ना कोई, कह पायो
जो कृपा कर्ण से सज्जित है

वही सुन पायो
उसने गायो
मन हर्षायो
सब कुछ पायो
मन हर्षायो

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
अक्टूबर २०, २००७ को लिखी
११ जून २०१० को लोकार्पित

Thursday, June 10, 2010

मन में जाग्रत गोविन्द धाम


क्षमा क्षमा केशव 
कह उसने
जब देखी कान्हा की मुस्कान,
क्षमा भाव से
बाहर हो तब
मन में जागी दिव्य उड़ान

श्रद्धा और विश्वास जगा कर
जग सुन्दर कर देता श्याम
कृपा कटाक्षा करूणा सागर
मन में जाग्रत गोविन्द धाम 

अशोक व्यास
१४ अक्टूबर २००७ को लिखी
१० जून २०१० को लोकार्पित

Wednesday, June 9, 2010

मन में चिर अपनापन कृष्ण


मन मोहन मन भवन कृष्ण
नित्य कृपा का सावन कृष्ण

मुरलीधर है मोर मुकुट संग
दिव्य सघन वृन्दावन कृष्ण

रास रचैय्या गिरिधारी 
करे प्रेम से पावन कृष्ण

बाल रूप से मोहे मैय्या
है तो सत्य सनातन कृष्ण

 सुमिरन रस से पता चले है
मन में चिर अपनापन कृष्ण

अशोक व्यास
११ अक्टूबर २००७ को लिखी
९ जून २०१० को लोकार्पित

Monday, June 7, 2010

देह छोड़ जाने से पहले


अर्थ बताओ
अर्थ दिलाओ
कृष्ण! सखा हो
मुझे जताओ

अपनेपन का बोध जगाओ 
रसमय सुमिरन तान सधाओ
बहुत अकेला भटक लिया हूँ
अब आ जाओ, ना तरसाओ

जीवन मेरा बीत रहा है
जो कुछ है, सब रीत रहा है
अब तक जान नहीं पाया हूँ
क्या साँसों में गीत रहा है

जीवन शेष नहीं होता पर
देह छोड़ जाने से पहले
पावन पथ पर बढ़ते बढ़ते
उन्नत होना मुझे सिखाओ


मौन मधुर आया जब भीतर
रोम रोम में कान्हा का स्वर
यह उल्लास अद्वितीय उजागर
झूमूं मैं विराट धुन गाकर

अशोक व्यास
७ अक्टूबर ०७ को लिखी
७ जून २०१० को लोकार्पित

Sunday, June 6, 2010

मौज निरंतर


अमृत पथ दिखलाए कान्हा
आनंद रस बरसाए कान्हा
कृपा श्याम की अद्भुत अनुपम
प्रेम छाँव अपनाए कान्हा

परम प्रेम आनंद प्रवाह
कृष्ण कृपा की कोई ना थाह
शरण श्याम ही जीवन धन है
मौज निरंतर, वाह भई वाह!


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२९ एवं ३० सितम्बर २००७ को लिखी
६ जून २०१० को लोकार्पित

Saturday, June 5, 2010

प्रभु मुस्कान मधुर अति पावन

prabhu muskaan madhur ati paavan
nirmal, sheetal, chinmay ho man
krishna naam ras leen nirantar
sahaj base jaakar vrindavan

प्रभु मुस्कान मधुर अति पावन
निर्मल, शीतल, चिन्मय हो मन
कृष्ण नाम रस लीन निरंतर
सहज बसे जाकर वृन्दावन

जय श्री कृष्ण
अशोक व्यास
१२ सितम्बर २००७ को लिखी
५ जून २०१० को लोकार्पित

Friday, June 4, 2010

गोविन्द धाम

कर्म मर्म तुम
सत्य धर्म तुम

केशव प्यारे
नित्य सहारे

आया हूँ फिर
द्वार तुम्हारे

यदुकुल नंदन
सब दुःख भंजन
हर दम तुम से 
मिला रहे मन


अशोक व्यास
८ सितम्बर 2007 को लिखी ४ जून २०१० को लोकार्पित 

आनंद श्याम
मकरंद श्याम
चल सुमिरन पथ
गोविन्द धाम

वह प्रेम मधुर
रस दिव्य मधुर
वह कृपामयी
बहुरूप मधुर

गोपाल मनोहर गिरिधारी
 महिमा मोहन की है भारी 
गायें श्रद्धा से नर-नारी
नित यमुनाजी की बलिहारी

१० सितम्बर २००७ को लिखी
४ जून २०१० को लोकार्पित

प्रेम प्रभु का पूंजी अपनी सच्ची है
बाकी जो है, दुनियादारी कच्ची है

११ सितम्बर २००७ को लिखी
४ जून २०१० को लोकार्पित

Thursday, June 3, 2010

शरण सत्य है


मंदिर मन में बना श्याम का घूमा सकल बाज़ार
सतत संग सुन्दर अनुभूति श्याममयी संसार

दिव्य सुधारस पान कराया गुरु ने ऐसा
सब कुछ हुआ विशेष, नहीं कुछ ऐसा वैसा

योगेश्वर का नाम मिटाए है भव बंधन 
शीतल, सुरभित मन करता भक्ति का चन्दन

शरण सत्य है जान ले, ओ मुरख नादान
बिना ब्रह्म सम्बन्ध के, गुड भी फीका जान

अशोक व्यास
७ सितम्बर ०७ को लिखी
३ जून २०१० को लोकार्पित

Wednesday, June 2, 2010

बहती है आनंद धार सी


मनमोहन मन आन बसों अब 
अब तो सीमा को दूर करो सब 
चले गए हो, जान लिया है
ना जाने, फिर आओगे कब 
तुम केशव हो, तुमसे सृष्टि
बिन सुमिरन, रसहीन लगे सब

बहती है आनंद धार सी
छवि तुम्हारी दिखती जब जब

ओ गोपाला, मुरलीधर ओ
तव चरण शरण, संसार सार सब


अशोक व्यास
६ सितम्बर ०७ को लिखी
२ जून २०१० को लोकार्पित

Tuesday, June 1, 2010

सच्चा प्रियतम मधुकर श्याम


पावन, मंगल, उज्जवल श्याम
दग्ध करे सब कलिमल श्याम

निर्मल मन में शीतल श्याम
जीवन पथ का संबल श्याम

गोविन्द, माधव, मुरहर श्याम
आनंद प्रेम मनोहर श्याम

खेल करे, छुप भीतर श्याम
सच्चा प्रियतम मधुकर श्याम

अपनेपन का सागर श्याम
अनुगृह दिव्य प्रभाकर श्याम

मुस्काये, गिरिराज धारण
करुण सुधारस लाकर श्याम


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ सितम्बर २००७ को लिखी
१ जून २०१० को लोकार्पित