Saturday, April 30, 2011

Fragrance of joy

 
 
"Dont think
Just Watch

Don't ask
Just listen

Don't worry
be cheerful

Dont acquire
Just accept

Doing is Being
Being is doing

Don't Do
Just Be

Be one with the blissful silence

let flower of action bloom out of this silence
on its own
silently

Let here be fragrance of joy all around you.

Jai Shri Krishna
words from April 3 1997
shared on 30 April 2011

Friday, April 29, 2011

ठहर ! देख हर लहर! लौटती है आकर


ठहर
देख हर लहर
लौटती है आकर
चली
जहाँ से, वहीं
मिल रही है जाकर

सुबह शाम हो या हो रात
सुना रही सागर की बात

है विशाल 
पर तेरी गोद में
रखना चाहे, सिर आकर

खेल प्रेम के खेल निरंतर
 खुशी से इसको अपना कर

अपनाने का खेल खेल ले
सुख-सुख हंस हंस सभी झेल ले

छोड़  न सीमा
सब कुछ खोकर
या अनमोल रतन पाकर
ठहर
देख हर लहर
लौटती है आकर

            अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२९ अप्रैल २०११    

Thursday, April 28, 2011

अपनी अपनी बात


अपने अपने रास्ते
अपनी अपनी बात
चल सजनी उस दर चलें
जहां है गोपीनाथ

देख पराये देस को
अपने देस की याद
चकाचोंध इस जगत की
सब कान्हा के बाद

अपने पल्ले कुछ नहीं
कहे बांधे गाँठ
उसके चरण बसों मना 
जिसके सारे ठाट

शरण श्याम की ले रहो
बस इतना हो ध्यान
कृपा दृष्टि आलोक में
हो गोविन्द गुणगान

अशोक व्यास
६ नवम्बर २००९ को लिही
२८ अप्रैल २०११ को लोकार्पित                

Wednesday, April 27, 2011

मन मंगल मंगल श्याम हरि



मन मंगल मंगल श्याम हरि
आनंद धार अविराम हरि
चल कृपा गगन की छाँव लिए
कर काज सकल मन थाम हरि


मन अनुपम आनंद बरस बरस
गहराए पल पल सुमिरन रस
मैं देखूं कहाँ मधुसूदन है
वो देखे मुझको हंस हंस हंस


अशोक व्यास
नवम्बर २४ और २५, २००९ को लिखी
२७ अप्रैल २०११ को लोकार्पित    

Tuesday, April 26, 2011

गोवर्धनधारी की जय जय


अपने दर की दिशा बताई
करूणामय  है मित्र कन्हाई
सांस वास कर प्यार दिखाई
सुमिरन रस से तृप्ति कराई

गोवर्धनधारी की जय जय
जय भक्तो के सदा सहाई

अशोक व्यास
६ सितम्बर २००९ को लिखी
२६ अप्रैल २०११ को लोकार्पित       

Monday, April 25, 2011

छोड़ दिया जब 'मैं' का बोरा


मन्त्र जाप कर लिया कोरा कोरा
दिखा नहीं गोकुल का छोरा
खिला प्रभात उस क्षण अपने मन
छोड़ दिया जब  'मैं' का बोरा


अशोक व्यास
७ सितम्बर 2009

Sunday, April 24, 2011

अपने सब अवगुंठन खोलो



श्याम सुन्दर की जय जय बोलो
अपने सब अवगुंठन खोलो
अमृत बदरी छुपी हुई जो
उसे बुला कर उसके हो लो

कान्हा की हर बात निराली
माखन मटकी कर कर खाली
खुद खावे, सब सखा खिलावे
हंस हंस ले गोपियाँ की गाली

कृष्ण मुरारी पर सब वारि
साँसों की यह दौलत सारी
उससे हर क्षण, उससे कण कण
मेरा सब कुछ, बस बनवारी

जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास

२६ जुलाई १९९७ को लिखी थीं मुम्बई में
२४ अप्रैल २०११ को न्यूयार्क से लोकार्पित

           

Saturday, April 23, 2011

मजा नहीं माखन में


 
कान्हा के घर पहुँच गए पर
सभी गोप जन खड़े थे डर डर
आज चुरा कर माखन खाने
कान्हा क्यूं लाया अपने घर

तभी यशोदा मैय्या आई
ग्वाल बाल देखे, मुस्काई
कहा चलो आ भीतर बैठो
माखन लेकर अभी आई


भीतर सब जाकर बैठे संग
देखे श्याम के ठाटदार रंग
तभी श्याम खिड़की से आया
मुख पर माखन था लिपटाया

बोला, मजा नहीं माखन में
बिना चुराए ही गर खाया


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ अप्रैल २०११              

Friday, April 22, 2011

कान्हा भी कमाल है


कान्हा से अधिक गोपियों के प्रति आभार
जिनके कारण सुलभ हुआ कान्हा का प्यार
जिनके भीतर कभी न रही 'मैं' की दीवार
जिन्होंने पूर्णता से पूर्ण को कर लिया स्वीकार

कान्हा के पास तो फिर भी चंचलता है
गोपियों के पास तो बस कान्हा झलकता है

कान्हा भी कमाल है
स्वयं से अधिक
गोपियों के पास
कैसे रह जाता है
या शायद
गोपियाँ हैं ही नहीं
कान्हा ही इस रूप में
स्वयं को रिझाता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ अप्रैल २०११    

   

Thursday, April 21, 2011

कान्हा छलिया बहुत बड़ा है


1
चल चल रे कान्हा के द्वारे
उस माखन का स्वाद पुकारे
जिसको कान्हा ने छू कर से
प्रेम सहित कल हमें दिया रे


चल चल खेले नंदलाल संग
नाचें उसकी प्रेम ताल संग
और कोइ रंग मन ना चाहे
 ल भीगें फिर कान्हा के रंग


कान्हा छलिया बहुत बड़ा है
लो अपने संग आन खड़ा है
मुकुट मोर का ऐसे रखता
जैसे इस पर रतन जड़ा है


कान्हा की मुस्कान अमोल
छोड़ छाड़ कर सारे बोल
 निरखें बस अच्युत आभा को
जो मन मिसरी देती घोल
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ अप्रैल २०११  

  
    

 
   

Wednesday, April 20, 2011

मेरे तो बस लाल


कृष्ण नाम धुन साथ ले, बैठा मंगल यान
प्रेमालोक उमड़ रहा, पग पग अमृत पान

निश्छल आनंद बरसता, पा सृष्टि का सार
     एक परम सत्ता दिखे, लिए सभी आकार   

गोप किसी को क्या कहें, सबमें है गोपाल
कहने-सुनने से परे, होते रहें निहाल

वृन्दावन की रेत में, अब भी है पद चाप
खेले मुझसे सांवरा और मैं करता जाप

मात यशोदा ने कहा, लीलाधर गोपाल
होगे स्वामी जगत के, मेरे तो बस लाल  

जान गए, हर सांस संग, सजा श्याम सन्देश
परम कृपा आभा जगी, दुःख-शोक हुए शेष
 
माखन, मिसरी बाँट कर, मुस्काये नंदलाल
बोले मेरे भक्त का, सखा बने है काल


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० अप्रैल २०११        
 

Tuesday, April 19, 2011

जय कान्हा, जय कृष्ण मुरारी


कान्हा की बंशी धुन प्यारी
मिटा रही व्याकुलता सारी
छुड़ा गयी ममता के बंधन
परम मिलन की है तैय्यारी

कान्हा के मुख है मुस्कान
सकल सृष्टि में बंशी तान
उत्सवमय है सारी धरती
पावन छवि करे कल्याण

जय कान्हा, जय कृष्ण मुरारी
मधुर मधुर तव लीला सारी
कृपा किरण से छूकर तुमने
जगमग कर दी मति हमारी


जय श्री कृष्ण
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका  
१९ अप्रैल २०११   
     

Monday, April 18, 2011

साँसों में सपने उजियारे


मन आनंद अपार उतारे
कान्हा के जयकार पुकारे
जिससे कण कण दीप्त निरंतर
हमको रहना उसी सहारे

साँसों में सपने उजियारे
पहुँच गए कान्हा के द्वारे
मौन मगन मनमोहन की धुन
इसे छोड़ मन कहीं ना जा रे


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० अक्टूबर २००६ को लिखी
१८ अप्रैल २०११ को लोकार्पित           

Sunday, April 17, 2011

छोड़ जगत की आग


कान्हा के मुस्कान में
करून स्नान दिन-रात
बरस गए, बीती उम्र
श्याम रहे बस साथ
गोविन्द के गुण गा रही
रसना है बड़भाग 
पाए शीतल मधुरता
छोड़ जगत की आग

अशोक व्यास
न्यूयार्क, एरिका
२० अक्टूबर २०११
          

Saturday, April 16, 2011

जब-जब मैंने गाया कान्हा



कान्हा के दरबार चला आया कान्हा
मुझको लेकर साथ चला आया कान्हा
 
मुझे लगा, है दूर, नहीं सुन पायेगा
मगर सुना, जब-जब मैंने गाया कान्हा
 
मांगो की सूची तो पहले जैसी थी
मुस्का कर इस बार खिलखिलाया कान्हा
 
जीवन मेरा सफल लगा उस दिन मुझको
जिस दिन सबसे अधिक मुझे भाया कान्हा
 
 
अशोक व्यास
९ अक्टूबर २००६ को लिखी
१६ अप्रैल २०११ को लोकार्पित    
 

Friday, April 15, 2011

मन मोहन जी आन मिलो ना


मन मोहन जी आन मिलो ना
ले बंशी की तान मिलो ना
यहीं तुम्हारे चरणों में हूँ
मिलना है आसान, मिलो ना

मनमोहन जी माखन लाया
तुम ना आये, तो खुद खाया
शायद तुमने छुप छुप खाया
या मेरा मन ही भरमाया

मनमोहनजी जान गया हूँ
मूल्यवान है मेरा जीवन
इसीलिए ओ केशव प्यारे
करता हूँ सब तुमको अर्पण


मन मोहन जी अब तो तय है
साँसों में अमृत की लय है
मेरे साथ तुम्हारा सुमिरन
सारा जीवन ही मधुमय है

जय हो जय हो कृष्ण मुरारी
जय जय जय मंगल हितकारी
लीलारस का कोष लुटा कर
पावन कर दी धरती सारी


जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ अप्रैल २०११       
      

 

Thursday, April 14, 2011

जीवन धन्य-धन्य हो जाए


गोविन्द मेरे प्राण प्यारे
मोहन मेरे, नित्य सहारे
प्रेम का माखन लिए हाथ में
मेरा मन कहता, तू खा रे


जब ऐसा माखन बन पाए
जिसको कान्हा रुच रुच खाए
तब जाकर ऐसा होता है
जीवन धन्य-धन्य हो जाए

सुमिरन की यह तान अनूठी
मिथ्या जग की तन्द्रा टूटी
जिसके आगे शेष नहीं कुछ
मैंने भी वह दौलत लूटी



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
                    गुरुवार, १४ अप्रैल 2011             

Wednesday, April 13, 2011

कान्हा खिलखिलाया


आज लगता है
वो रूठा ही रहेगा

आपस में फुसफुसा कर
कान्हा की चुगली करने पर
अफ़सोस कर रही थी सखियाँ

तभी बात करते करते
उठते हुए
दो सखियों का सर टकराया
ना जाने कब किसने
दोनों की
चोटियों को बाँध कर ये दृश्य बनाया

वो कुछ समझ पातीं
इससे पहले
पेड़ के पीछे
ग्वाल बाल संग कान्हा खिलखिलाया


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ अप्रैल 2011              

Tuesday, April 12, 2011


गिरिधारी की कर-कर  बतियाँ
अब पनघट पर बैठी सखियाँ

सोच रही हैं कहाँ गया वो
जो तोडा करता था मटकियाँ

सहज ध्यान में डूब गयी सब
कृष्णमई हुयी सबकी सूरतियाँ

भाव श्याम का नाव सरीखा
पार हो गयी सारी नदियाँ


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ अप्रैल 2011         
 

Monday, April 11, 2011

गलती मेरी थी



कान्हा से मिले बहुत दिन हो गए
दोनों सखा पगडंडी पर
खड़े खड़े
एक दुसरे से बतिया रहे थे
एक ने कहा
'हाँ, अभी उस दिन
मैंने उसको मेरी गेंद गुमा देने पर
डांट दिया था
फिर वो खेलने ही नहीं आया'
दूसरा बोला
'तुम्हें ऐसे नहीं
कहना चाहिए था
उसका मन बड़ा कोमल है'
'हाँ, गलती हो गयी'
पहला रूआंसा हो गया
'अबकी कान्हा आएगा 
तो मैं उससे अपनी गेंद के लिए
कभी लडूंगा ही नहीं'
न जाने कैसे कान्हा
पेड़ के पीछे से प्रकट हो गया
मुस्कुराते हुए बोला
'तुम जिस गेंद के लिए
लड़ने लगे थे
वो गेंद तो तुम्हारी थी ही नहीं
तुम्हारी कोई गलती नहीं
गलती मेरी थी की
मैंने तुम्हे बताया नहीं 
की जिस गेंद को तुम अपना मान रहे हो
वो तुम्हारी नहीं मेरी है '


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ अप्रैल ११  
    

Sunday, April 10, 2011

बिना बुलावे के भी आ जाया करो ना


कान्हा कदम्ब वृक्ष पर चढ़ कर
जब
देखते थे
शरारत छोड़ कर
शांत मुद्रा में
तब भी
हम नहीं समझ पाते थे
की वो उतने ही नहीं 
जितने दीखते हैं

हां! सुदर हैं
अच्छे लगते हैं
विनोद भी करते हैं
पीड़ा भी हरते हैं
अग्नि से बचाया
इन्द्र के कोप से छुड़ाया
और भी वो पहले
पूतना को भी
अतिम सांस तक पहुँचाया

सब कुछ था विशिष्ट कृष्ण के साथ
और वो यसोदा मैय्या को मुख में जगत दिखलाने वाली बात

सब कुछ सुना 
पर सुन कर भी ठहरता नहीं था
हम सब
कृष्ण तो 'उतना' ही मान कर
उनके 'अनंत' होने का स्वाद लेने का
अजीब सा खेल खेलते रहे

या शायद
कृष्ण ऐसा ही चाहते थे
शायद खेल हमारा कभी था ही नहीं
खेल सारा का सारा कृष्ण का ही था

ऐसा क्या है कृष्ण
की तुम्हारे बिना किसी खेल में
वो मजा कभी आता ही नहीं

और
तुम्हें बुलावे की इतनी आदत पड़ गयी है
क्या इतना भी अपना नहीं समझते
कभी कभी 
बिना बुलावे के भी 
आ जाया करो ना

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
              १० अप्रैल २०११              

Saturday, April 9, 2011

चोरी माखन की


कृष्ण मेरी वो गेंद तुम्हारे पास रही
उसकी हर एक छुवन मेरी तो खास रही
तुम क्यूं अपने साथ ले गए खेल मेरा
वो छोटी थी, पर मेरा तो विश्वास रही
कृष्ण तुम्हारे नाम शिकायत लिखवाये
मन मेरा सब सच कहने को उकसाए
चोरी माखन की करने में हम भी थे
मगर हमेशा नाम तुम्हारा ही आये


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ अप्रैल २०११, शनिवार   


    

Friday, April 8, 2011

मेरा प्रियतम बंशी वाला


मेरा प्रियतम बंशी वाला
उसे बुलाते है गोपाला
उसका नाम बड़ा मीठा है
स्वाद दिलाये मिसरी वाला

वो गायों का है रखवाला
दीखता तो है भोला भाला
मगर चतुर है, ढूंढ निकाले 
माखन जो है मटकी वाला

भोली सी है ब्रज की बाला
शुद्ध प्रेम की अद्भुत माला
सांस सांस से बना रही है
खोले हर बंधन का ताला

जय जय जय हो कृष्ण मुरारी
पावन करते सृष्टि सारी
जो जो लीलारस में डूबे
उन भक्तो की है बलिहारी


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ अप्रैल २०११       

      

Thursday, April 7, 2011

जिसे श्याम अपनाए


अनुभव रस छू के श्याम
गए अभी झूम के
देखा था मोर मुकुट
मैंने तब घूम के
छवि कान्हा की मोहक
ठहर गयी साथ में
देखूं कोई देख न ले
इस छवि को चूम के


बावरिया कहने को 
चाहे कोई कह जाए
पर जो है पास मेरे
वो कोई न पाए
बात नन्ददुलारे की
कहो, कही न जाए
और उसकी क्या कहे कोई
जिसे श्याम अपनाए


जय जय गोपाल लाल
देख देख मुस्काये
संशय का लेश मात्र
कहीं ठहर ना पाए
सत्य सांस, सत्य आस
कान्हा उर में आये
वृक्षों के पात झरे
       पर वसंत ना जाए      


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, ७ अप्रैल 2011        

Wednesday, April 6, 2011

माखन जैसी मीठी बतियाँ


सखियाँ मिल कर यूँ बतियाएं
आज न पनघट पर हम जाएँ
प्यास बुझायें लीलारस से
नंदनंदन के गीत बनाएं


श्याम सुने और श्याम सुनाएँ
वृन्दावन में मोक्ष उगायें
प्रेम करे ऐसा उजियारा
सूर्यकिरण फीकी पड़ जाएँ


रटे-रटाये पद ना गायें
नूतनता का मोद मनाएं
माखन जैसी मीठी बतियाँ
गोविन्द गोविन्द कह कर पायें


अहा, आज सब श्याम खिजायें
सब कान्हा का स्वांग रचाएं
पर जब बंशी अधर धरायें
स्वर न पायें, श्याम बुलाएं     


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार,  ६ अप्रैल २०११  
       

Tuesday, April 5, 2011

मेरे-तेरे मन में कान्हा


मेरे-तेरे मन में कान्हा
देखो तो कण कण में कान्हा
और कहीं चाहे छुप जाए
दिखता अपनेपन में कान्हा

मेरा तो साजन है कान्हा
श्रद्धा का सावन है कान्हा
सांस सांस बंशी की धुन है
मेरी हर धड़कन में कान्हा 
  
मेरा तो जीवन है कान्हा
सचमुच अक्षय धन है कान्हा
रिझा रहा है लीला रस से
खुदमें नित्य मगन है कान्हा  

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ अप्रैल २०११  

Monday, April 4, 2011

तेरी कृपा का अभिनन्दन


इस खाली खाली बर्तन में
आलोक झरे
तव सुमिरन का,
हे केशव अब
हर सांस मेरी
है गान
तेरे ही चिंतन का,
हर क्षण
सजगता से
तेरी कृपा का अभिनन्दन
हे माधव! मधुसुदन
तुमको ही
नित्य नमन 

अशोक व्यास
१४ मार्च १९९७ को लिखी
४ अप्रैल २०११ को परिमार्जन और लोकार्पण            

Sunday, April 3, 2011

प्रेम पथ पर श्याम के संग चल निरंतर



प्रेम पथ पर श्याम के संग चल निरंतर
        साधना की सूक्ष्म आभा में निखर कर     

बिसर कर संताप और सब मोह-बंधन
ध्यान में बस बंशी वाला नन्द-नंदन 

मांग ले रे साथ उसका अब मचल कर
देखना मत, भ्रम के भंवरों को पलट कर

कामना की पालकी से अब उतर ले
दिव्य दर्पण देख कर, तू अब संवर ले 

पूर्णता का बोध अंतस में मुखर कर
प्रेम पथ पर श्याम के संग चल निरंतर


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, ३ अप्रैल २०११  

Saturday, April 2, 2011

बंशी की धुन मैं खो जाऊं


श्याम तुम्हारे चरण दबाऊँ
मोर पंख से धूल हटाऊँ

माखन मिस्री खानी हो तो
अभी भाग कर मैं ले आऊँ

एक बात बस सोची है अब
साथ तुम्हारे, 'मैं' न लाऊँ

बस इतना सा मुझे बता दो
इस 'मैं' को रख कहाँ पे आऊँ

तुम हो कौन, कोइ न जाने
क्या महिमा मैं तेरी गाऊँ

जो कुछ कहता, लगे अधूरा
भला यही, मौन हो जाऊं

बात तुम्हारी सुनी सुनाई
कहो तो तुमको आज सुनाऊँ

क्या तुम मुझको ही पाओगे
अगर कभी तुमको पा जाऊं

खोना-पाना छोड़ छाड़ कर
बंशी की धुन मैं खो जाऊं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
 २ अप्रैल २०११     

             

Friday, April 1, 2011

जब कान्हा ने बंशी बजाई


श्याम सखा की मुरली 
राधा ने छुपाई
फिर खुद ढूँढने लगी
कान्हा ने चुराई

अब घबराहट देख
राधा की 
कान्हा को हंसी आई
बिन कहे
बात एक दूजे की
दोनों को समझ आई

सब के मन चहक उठे
फिर से
जब कान्हा ने बंशी बजाई


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ अप्रैल 2011