Friday, December 31, 2010

परम प्रेम की रीत निराली


 
सुन्दरतम गिरिधारी
हँस हँस
बरसाए आनंद उजास
मोहनमय मन मगन
मनोहर
करे सांस में नित्य निवास

परम प्रेम की रीत निराली
एक लगे, धरती आकाश

श्याम शब्द है और मौन भी
नित्य निरंतर मेरे पास


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ मार्च २००६

Thursday, December 30, 2010

करूणा है श्रृंगार कृष्ण का


 
सार कृष्ण का, प्यार कृष्ण का
सांस-सांस आधार कृष्ण का

नयनों में यह छटा मनोहर
कण कण में आभार कृष्ण का

मैं उसका हूँ, जब यह जाना
दिखता सब संसार कृष्ण का

सोच-समझ कर लिखता हूँ मैं
सोचों पर अधिकार कृष्ण का

जब देखा घबराया अर्जुन
है इतना विस्तार कृष्ण का

मोर पंख माथे पर धारे
करूणा है श्रृंगार कृष्ण का

माँगा सूरज की किरणों से
सुमिरन बारम्बार कृष्ण का

अशोक व्यास
२ मार्च २००६ को लिखी
३० दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, December 29, 2010

श्याम फिर मुस्काये



गोवर्धन धर श्याम बिहारी मुस्काये
मेघ गरजता रहा, श्याम कब घबराए

मेघ थके जब बरस, इन्द्र तब थर्राए
क्षमा याचना सुनी, श्याम फिर मुस्काये

लिए परम आश्वस्त भाव, पीड़ा हरने
भक्त वत्सला, श्याम सदा उर में आये


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ जनवरी २००६ को लिखी
२९ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Tuesday, December 28, 2010

कभी छोड़ कर ना जाना






संबंधों को राख बना कर चला गया
मेरा सब कुछ ख़ाक बना कर चला गया

मुझमें दिखने लगी ज़माने की खुशियाँ
ऐसी अद्भुत साख बना कर चला गया

अपनी दौलत दे तो दी मुझको सारी
पर अब चौकीदार बना कर चला गया

जितने भी थे द्वेष और तृष्णा सारे
छूकर सबसे प्यार बना कर चला गया

मैं कहता था, कभी छोड़ कर ना जाना
पर वो अपना सार जगा कर चला गया

जब जब देखूं, जहां-२ देखूं वो है
तन्मयता का तार सजा कर चला गया

आलोकित है कण कण में जैसे वो ही
सच की वो झंकार सजा कर चला गया


अशोक व्यास
फरवरी १४, २०००६ को लिखी
२८ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Monday, December 27, 2010

मन को इतना भाये कान्हा

 
आनंद रस बरसाए कान्हा
प्रेम मुदित मन गाये कान्हा

स्वांग रचा कर तरह तरह के
भक्तन को अपनाए कान्हा

छोड़ जगत उसकी धुन रमता
मन को इतना भाये कान्हा

हुई चेतना स्वर्णिम, सुन्दर
कण कण सार जगाये कान्हा

अशोक व्यास
१४ जनवरी २०१० को लिखी
२७ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Sunday, December 26, 2010

फिर तो कोई भी डर नहीं

 
है देह तो उससे मगर
                                               वो देह पर निर्भर नहीं
हर एक जगह उससे है पर
                                                    उसका कोई भी घर नहीं
तन की तरंगों को मिले
                                                    तृप्ति उसी के नाम से
जब मिल गया उसका पता
                                                       फिर तो कोई भी डर नहीं 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० मार्च २०१० को लिखी
२६ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, December 22, 2010

दौलत जगमग पल की

 
श्याम द्वार खोया कहीं
भटक रहा वन जाय
गुरुवर तुमसे बिनती
रस्ता दो बतलाय

आज, अभी को छोड़ कर
फिरे डगरिया कल की
अनदेखी मन कर रहा 
दौलत जगमग पल की

ध्यान नहीं, सुमिरन नहीं
सिर्फ सोच की धार
ऐसे ही होती रहे
बिना खेल के हार

गोविन्द गुण गा बावरे
कर rahe भक्त सुजान
अपने मन की बांसुरी
बजे कृष्ण की तान

अशोक व्यास
१४ जनवरी २००६ को लिखी
२२ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Monday, December 20, 2010

जय राधे गोविन्द कृष्ण हरे


 
मन पावन आनंद सरस बरस
सब ताप हरे, सुख सार सरे

मन गाये गोकुल वृन्दावन
जय राधे गोविन्द कृष्ण हरे

अमृत घट ले आये कान्हा
उसके कर दे, जो ध्यान धरे

सुन्दरतम केशव गिरिधारी
कर कृपा मेरे उर में उतरे


अशोक व्यास
२७ फरवरी २००६ रचित
२० दिसंबर २०१० लोकार्पित

Sunday, December 19, 2010

साँसों में श्याम समाया है

 
चल आज बसन्ती पवन चली
साँसों में श्याम समाया है
सखी प्रेम मगन कलियाँ-भँवरे
आनंद परम नभ छाया है

बस्ती बस्ती गिरिधारी है
छवि कान्हा की अति प्यारी है
सब नाच रहे हरि भजन संग
उर में गोविन्द समाया है

अशोक व्यास
१३ अप्रैल २००६ को लिखी
रविवार १९ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Saturday, December 18, 2010

रसना सखी बनी है जब से

 
श्याम सुन्दर मनमोहन भावे
और कछु बतिया ना सुहावे

रसना सखी बनी है जब से
गोविन्द गोविन्द नाम सुनावे

यसुमति मैय्या निरख श्याम मुख
मंद मंद मन में मुसकावे

लीला कान्हा की सुन लीजे
सांस प्रेम मगन व्हे जावे

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ फरवरी २००६ को लिखी
१८ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Friday, December 17, 2010

मन कान्हा आन बिराजे

 
आनंदित हर बात लगे
मन कान्हा आन बिराजे
चलो सखी, उस डगर चलें
जहां कृष्ण प्रेम धुन बाजे

गोवर्धन धारी के मुख पर
छाई छटा निराली
सिखला मुझको श्यामा प्यारी
मुद्रा अर्पण वाली 
 
कृष्ण कृपा के कोष बिना 
निर्धन राजे-महाराजे 
आनंदित हर बात लगे
मन कान्हा आन बिराजे

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ फरवरी २००६ को लिखी 
१७ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Thursday, December 16, 2010

श्याम सखा संग

 
आनंद आनंद प्रेम निरंतर
श्याम सखा संग संग निरंतर
छलक रही है क्षण क्षण सुन्दर
नटवर नागर कृपा की गागर

कोमल, उज्जवल, ज्योतिर्मय मन
अद्भुत है सुमिरन यह पावन

अशोक व्यास
२९ दिसंबर २००५ को लिखी
१६ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, December 15, 2010

पाकर नित्यमुक्त की संगत

 
मन आनंद बहार सदाव्रत
कान्हा मुख मन सदा रहो रत
 
उज्जवल अद्भुत करूण दिव्य वह 
सांस सांस बस उसकी रंगत 
मैं मन बंधन पडा रहा क्यूं
पाकर नित्यमुक्त की संगत

कर उसका सुमिरन रे मनवा
जिससे पग पग हो पावन पथ

अशोक व्यास
२४ दिसंबर २००५  को लिखी
१५ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Tuesday, December 14, 2010


प्रेम श्याम का
झंकृत तन-मन
निर्मल सुन्दर
अंतस पावन

करूणामय की
कथा निराली
अनुपम, अद्भुत
कृपा का सावन

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० जनवरी २००६ को लिखी
१४ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Monday, December 13, 2010

मुरली मनोहर की बतिया

ताक झांक कर राधा रानी 
मुरली मनोहर की बतिया सुन 
स्वांग करे कुछ 
मन ही मन तो ध्यान लगाए 
भांप गये सब यदुनंदन तो
बंशी बजा कर फिर मुस्काये 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२४ मार्च २००६ को लिखी 
१३ दिसंबर २०१० को लोकार्पित 

Saturday, December 11, 2010

मेरा जीवन सच्चा कर दो ओ कान्हा


 
मेरा जीवन सच्चा कर दो ओ कान्हा
मेरा पूजन सच्चा कर दो ओ कान्हा
नाम तुम्हारा लेना तन्मय कर जाए
सरस, सरल ऐसा मन कर दो ओ कान्हा


विरह वेदना कातर अश्रु
सुप्त तुम्हारा संग
नित्य कृष्णमय सांस रहे
प्रभु दे दो ऐसा रंग

अशोक व्यास
१५ जनवरी २००६ को लिखी
शनिवार ११ दिसंबर को लोकार्पित

Friday, December 10, 2010

कण-कण है आनंद रस, क्षण क्षण है संतोष

 
आकर्षण बस कृष्ण का, और ना कोई खिंचाव
ले सुमिरन पतवार चल, बैठ कृपा की नाव

गोविन्द नाम सुना दिया, दिया जगत का कोष
कण-कण है आनंद रस, क्षण क्षण है संतोष

प्रेम गीत गाता फिरूं, श्याम दिसे चहूँ ओर
सब शीतल, उज्जवल करे, मन में ऐसी भोर 
 
 
अशोक व्यास 
६ जनवरी २००५ को लिखी 
१० दिसंबर २०१० को लोकार्पित 

Wednesday, December 8, 2010

श्याम सारा छल हरो

कर्म पथ दरसा प्रभु मंगल करो
सार से सुन्दर पिया हर पल करो

शुद्ध मन से सृजन पथ बढ़ते रहें
समन्वय सुर दो, जगत शीतल करो

कामना है प्रेम, उजियारा बढे
समर्पण दे, श्याम सारा छल हरो


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३० दिसंबर २००५ को लिखी
८ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Tuesday, December 7, 2010

रखना मन सबसे अपनापन

 
शांत सरल मन चल वृन्दावन
खा ले मनमोहन संग माखन

बिरहन को अग्नि सा लागे
अपना तो प्रेमी है सावन

सुन्दरता आई सब जग की
खेले कान्हा, मन के आँगन
 
मन उदार रहो नित मेरे
जाने कौन रूप हो वामन
 
सारे जग में श्याम सखा है
रखना मन सबसे अपनापन

अशोक व्यास
बुधवार, ४ जनवरी २००५ को लिखी
मंगलवार, ७ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Monday, December 6, 2010

जो है अपरम्पार



 
1
कृष्ण ना सूझे आँख से, दिखता सब संसार
रे मन, वह दिखला मुझे, जो है अपरम्पार
2
प्रेम प्रवाह मधुर मनभावन
सुमिरन मनमोहन अति पावन
आभामयी श्याम की चर्चा
रस संचार करे मधुसूदन


अशोक व्यास, न्यूयार्क
२५ और २७ नवम्बर २००५ को लिखी
६ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Sunday, December 5, 2010

प्रेम पालकी बैठ चले मन



 
कर सत्कार
धरा श्रृंगार
मेरे मनमोहन
गये पधार

नित्य रसमयी गुण गा रसना
नीरस विषय संग ना फंसना

वृन्दावन की सांझ मनोहर
कण कण मुखरित आनंदित स्वर

प्रेम पालकी बैठ चले मन
श्रद्धा, निष्ठा बने कहार
कर सत्कार, धरा श्रृंगार
मेरे मनमोहन गये पधार

जय श्री कृष्ण

२४ नवम्बर २००५ को लिखी
५ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Saturday, December 4, 2010

सुमिरन है पतवार

सुमिरन है पतवार, नाव श्रद्धा, मन केवट है
नदी उसी की है, जिसकी छवि लिए हुए तट है
मुरली धुन में प्रेम बहा कर बुला रहा है
भगा भगा कर छुप जाए, मोहन तो नटखट है 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ नवम्बर २००५ को लिखी
४ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

Thursday, December 2, 2010

प्रेम कृष्ण का

 
जीवन आनंद रस संचार करे है साईं
उजियारा मन में लेकर आ रहे गुसाई 
प्रेम कृष्ण का मांगे मिलता नहीं कभी 
आग्रह छोड़ शरण लेने से मिले कन्हाई 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ दिसंबर 2010

Wednesday, December 1, 2010

पावन प्रीत

 
कान्हा मुख मुस्कान छलाछल
जगी सांस नव आभा उज्जवल

पावन प्रीत उजागर कर दी
मन आनंद मगन अति शीतल

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ दिसंबर २००५ को लिखी
१ दिसंबर २०१० को लोकार्पित 

Tuesday, November 30, 2010

सुन्दर-मधुर हो गया जीवन

 
सागर पर्वत नदी किनारे
कान्हा संग सुन्दर हैं सारे

मन मोहन का नाम लिया तो
अपने हो गये चाँद-सितारे

धड़कन ने ऐसी लय पाई
निसदिन राधेश्याम पुकारे

मन ओजस्वी बना रहा है
खेल भले जीते या हारे

यमुनातट की बालू लेकर
रास रंग मानस में धारे

केशव कथा नहीं कहता है
वो केवल मुस्का कर तारे

धूप गयी अँधियारा आया
पासे नए, काल ने दारे

सुन्दर-मधुर हो गया जीवन
सांस सांस है श्याम सहारे

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ मार्च २००६ को लिखी
३० नवम्बर को लोकार्पित

Wednesday, November 24, 2010

मेरा श्याम मधुर



 
जय कृष्ण कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
मुरलीधर मोहन प्यारे का
है नाम मधुर
हर काम मधुर

जय कृष्ण कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
गिरिधर गोकुल रखवारे का
है धाम मधुर
मेरा श्याम मधुर

जय कृष्ण कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
परिचय नूतन उजियारे का
ईनाम मधुर
अविराम मधुर


जय हो
जय श्री कृष्ण
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, २४ नवम्बर २०१०

Tuesday, November 23, 2010

मोहन उसके साथ

करे श्याम की चाकरी, जपे श्याम का नाम
मन शीतल आलोक में, पाये नित विश्राम
 
अनुपम छवि यदुनाथ का, अद्भुत सारी बात 
जो अपने मन संग है, मोहन उसके साथ 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ नवम्बर 2010


Monday, November 22, 2010

कान्हा की जय जयकार करें

 
मन मंगल माधव नाम लिए
चल जीवन पथ उजियार करें 
 
लेकर मधुसुदन का सुमिरन
कण कण में अनुपम प्यार भरें
 
है आज नया उल्लास प्रकट
हर अनुभव का सत्कार करें
 
हम ग्वाल-बाल के संग खेलें 
कान्हा की  जय जयकार करें
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, २२ नवम्बर २०१०


Sunday, November 21, 2010

यह कविता नहीं सत्य है

 
हम आज समग्रता से
अपनी पूर्णता को अपनाएंगे
या इस अपार वैभव को
कल पर टाल जायेंगे

अगर हम कल-कल करते जायेंगे
तो सूखे- सूखे ही निकल जायेंगे

विवशता को नहीं देना है
स्थाई-अस्थाई स्थान
हम क्यूं क्षुद्र बने, हमारी
सारी धरती, सारा आसमान

यह कविता नहीं सत्य है
सत्य का स्वर है
आपके ध्यान में है अमृत
वरना सब नश्वर है
 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ जून २००४ को लिखी
२१ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Saturday, November 20, 2010

श्याम नाम की माला



 
मेरा है गोपाल और नंदलाला भी
मुझमें गाये है गोकुल का ग्वाला भी

वही मधु बन मन में बसने आये है
मनमोहन मधुसूदन है मतवाला भी
 
दिखता है गैय्या के खुर की रेत उड़े 
पीछे आये है सबका रखवाला भी

चलो चलो, माखन खाने की बेला है
छुप छुप देखे है मटकी ब्रजबाला भी
 
उसने कृपा दृष्टि से अमृतमय करके 
सोंपी दई है श्याम नाम की माला भी
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, २० नवम्बर २०१०




Friday, November 19, 2010

आदि-अंत रहित आनंद की धारा





 
दिन उगते ही
ठाकुरजी का ध्यान
जागे उल्लास
बजे सुन्दरतम की तान

दिन अवसरों के उपहार लाये
कर्मयुक्त संतोष सृजन सार सिखाये

अहा
इस दिन को अपना सर्वश्रेष्ठ दिन बनाएं
जैसा बनने का सपना है
आज ही बन जाएँ

प्रसन्न रहें, माधुर्य बढायें
समन्वित सार गुनगुनाये

जिसकी करते हैं आराधना
उसे अपना संगी बनाएं

इस दिन, इस क्षण
द्वन्द्वातीत हो जाएँ

एक जो चरम है
एक जो परम है

उसके चरणों में
नतमस्तक हो जाएँ

उसे कर्म नृत्य में
अपने संग बुलाएं

हर क्षण की ताल पर
हर सांस की उछल पर

समर्पित लचीलेपन के साथ
सौंपे स्वयं को उसके हाथ

उसके निर्देश पर नृत्य हमारा हो
आदि-अंत रहित आनंद की धारा हो
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ नवम्बर २०१०, शुक्रवार




Thursday, November 18, 2010

वह खेल दिखाए नए नए

 
मन प्रेम बना सत्कार करे
कान्हामय जग से प्यार करे
वह खेल दिखाए नए नए
करूणामय दृष्टि दुलार करे

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जून २, २०००४ को लिखी
१८ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, November 17, 2010

जो कान्हा का साथ दे

 
श्याम सहारे चल सखी
करें लहर से बात
पार करेंगे हर भंवर
थामे कान्हा हाथ

पावन, सुन्दर सरस है
मनमोहन मुस्कान
गया मेरा सर्वस्व ही
सुन मुरली की तान

मुक्ति माखन हाथ ले
कान्हा चला लुटाय
जो कान्हा का साथ दे
वो नित माखन खाय

श्याम सुन्दर की चाकरी
बस वो ही कर पाय 
छोड़ रहट, जो नितप्रति
कान्हा पीछे जाय
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जून २००४ को लिखी गयी
१७ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Tuesday, November 16, 2010

दिन और रात सहज ही योग सिखाते हैं

 
रात आती है
विश्रांति की चादर लाती है
सारी क्रियाओं को शिथिल करने की प्रेरणा लाती है
ऊर्जा संचित करने का अवसर खिलाती है

रात में माँ की यह मौन पुकार है
कि अब कर्ममुक्त हो जाने में ही सार है

लाओ अपनी थकान, लो थपकी मुझसे
जिसमें स्फूर्ति का अनुपम उपहार है

फिर जब 
रात की गोद में
विश्रांति के 
सुन्दर मोद में
 
तन-मन सहला दिए जाते हैं 
हम दिन उगने के समीप आते हैं
 
और 
अहा!
सूर्योदय की नित्य नूतन आभा 
उजियारे का अमृत वर्षं,
नए सिरे से प्रफुल्लित, प्रमुदित 
नव आशा का निमंत्रण,
 
दिन क्रिया की सुन्दरता का दिव्य गान है
रात की निष्क्रियता में भी अमृत पिपासा विद्यमान है
 
दिन और रात सहज ही योग सिखाते हैं
हमें सक्रिय-निष्क्रिय लय संग एक कर जाते हैं
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 

Friday, November 12, 2010

खुल गया कामना का बंधन

 
कालियदमन कान्हा सुमिरन
खुल गया कामना का बंधन

अब मुक्त व्योम की शोभा में
खिल रहा श्याम का ही चिंतन
 
वह हर चिंता से छूट गया
मन में छाई बांकी चितवन

उल्लास प्रेम सेवा लाये 
केशव करूणा महके आँगन
 
लो ज्योति जगी उस वैभव की
जो दिखलाए है मनमोहन 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१२ नवम्बर 2010



Thursday, November 11, 2010

हवा की सांसों में

 
लिख लिख कर
उसने फिर
श्याम का नाम मिटाया
अब युग बदल गया
पनघट पर
कोई नहीं आया

पर हवा की सांसों में
कृष्ण का होना
घुला हुआ है निरंतर 
मौन होकर
सुनने लगा वह
पवन में कान्हा का स्वर


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, ११ नवम्बर 2010
 

Wednesday, November 10, 2010

चल श्याम नाम खुल कर गायें

 
चल श्याम नाम खुल कर गायें
हम प्रेम ग्रन्थ खुद बन जाएँ

हर सांस नंदनंदन सुमिरन
पग पग सौभाग्य पे इतरायें
 
जिससे जीवन उपहार मिला 
हर सांस उसी के गुण गायें
 
चाहे आंधी-तूफ़ान आये
हम कभी ना उनसे घबराएं

घनघोर घटा चाहे छाये 
ले नाम की छतरी बढ़ जाएँ

अब सरस श्याम की शोभा में
तज देह-भान, हम रम जाएँ
 
चल श्याम नाम खुल कर गायें
हम प्रेम ग्रन्थ खुद बन जाएँ

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ नवम्बर २०१०

 

Tuesday, November 9, 2010

चल कृष्ण सखा की बात करें

 
चल कृष्ण सखा से बात करें
रच खेल, यूँ ही शह-मात करें
और बात बात में बिना कहे 
उसके चरणों पर हाथ धरें

चिन्मय कान्हा का साथ करें
फिर नंदनंदन की बात करें
उसकी लीला का रस सागर
छूकर मंगल दिन-रात करें

चल कृष्ण सखा की बात करें...
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, ९ नवम्बर २०१०



Monday, November 8, 2010

श्याम मेरा सर्वस्व है

 
श्याम से सम्बन्ध अपना
क्या रहा
कैसे रहा
और
क्यूं रहा
सोचते सोचते 
लगा
सोच से परे है श्याम
पर सोच को आलोकित कर देता है


श्याम तुम मेरे आराध्य हो
मेरे सखा हो
मेरे स्वामी हो
प्रश्न पूछ कर
लगा सम्बन्ध को सीमित कर दिया 
अनजाने में

सांसों में 
बोध दमका
समग्रता से बोल उठा वह 
'श्याम तुम तो मेरे सर्वस्व हो'


दिशा दिशा में
हर एक क्षण में
सांस सांस में
हर एक शब्द में
एक चेतना ज्योतिर्मय जो
वही श्याम है
श्याम ना केवल, स्वामी, सखा
ना बंधू,बांधव
श्याम मेरा सर्वस्व है
श्याम मेरा सर्वस्व है
सर्वत्र श्याम ही श्याम है
एक जो है 
नित्य निरंतर
वही मोर मुकुटधारी
मुरली वाला श्याम स्वरुप है


जय हो
जय श्री कृष्ण 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ नवम्बर २०१०

Sunday, November 7, 2010

वह मार्ग सरल

 
तव चरणन पर धर मति सकल
प्रभु  पूछ रहा वह मार्ग सरल
जिसको पा धन्य हुआ जाऊं
जिससे पाऊँ तव भक्ति तरल

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ अक्टूबर २०१० 
लोकार्पित ७ नवम्बर 2010

Saturday, November 6, 2010

याद रहे नित साथ मेरे मनमोहन की

 
 
अमृतमय है याद मधुर मनमोहन की
याद रहे नित साथ मेरे मनमोहन की
पाया है अनमोल खज़ाना प्रेम भरा
करूँ निरंतर बात मेरे मनमोहन की 

अशोक व्यास
१२ दिसंबर २००५ को लिखी
६ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Friday, November 5, 2010

जीवन में नित मंगल हो



कान्हा मुख मुस्कान लबालब
करून लालिमा लाया पूरब
सम रस दृष्टि, प्रेम लुटाये
वो अपना तो जग अपना सब

-----------------------------
जीवन में नित मंगल हो
घर घर आनंद स्थल हो
साँसों में शाश्वत गाये 
प्रेमयुक्त मन शीतल हो

दीप पर्व पर मंगल कामनाएं  

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका


Thursday, November 4, 2010

चल कान्हा की बंशी चुराएँ

 
चल कान्हा की बंशी चुराएँ
नटखट को हम आज खिजाएँ
वो कदम के तले जो आये
पेड़ चढ़ें हम जीभ दिखाएँ

पर बंशी कान्हा बिन क्या है
उसके बिना रात-दिन क्या है

हम तो उसको लाड लड़ाएं
वो रूठे तो उसे मनाएं
नंदनंदन के मन जो भये
हम तो वही चाल अपनाएँ

अशोक व्यास
१० जनवरी २००६ को लिखी
४ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, November 3, 2010

साँसों में श्याम समाया है

 
चल आज बसन्ती पवन चली 
साँसों में श्याम समाया है
सखी प्रेम मगन कलियाँ भँवरे
आनंद परम नभ छाया है

बस्ती बस्ती गिरिधारी है
छवि कान्हा की अति प्यारी है
सब नाच रहे हरिभजन संग
उर में गोविन्द समाया है

अशोक व्यास
१३ अप्रैल २००५ को लिखी
३ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Tuesday, November 2, 2010

जाग्रत रखता मुझसे नाता




 
 
"सूर्य किरण में
नित्य पवन में
क्षण क्षण कर
आलिंगन तेरा

रचने का आनंद उठाने
बार बार 
तुझसे बतियाता
तुम इतना करना
ओ कान्हा!
जाग्रत रखता मुझसे नाता '
 

३० जून २००४ को लिखी
२ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Monday, November 1, 2010

श्याम नाम गुण गाय

श्याम नाम का आसरा
ओर ना दूजी बात 
चहुँ दिसा अपनी लगे
लिए श्याम को साथ 

कृष्ण भजे मन रात-दिन
रस अनुपम नित पाय 
पावन हो जिव्हा सदा
श्याम नाम गुण गाय

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ जुलाई २०१० रचित
१ नवम्बर २०१० को लोकार्पित

Sunday, October 31, 2010

गूंगे के गुड़ स्वाद सरीखा


कान्हा जी से करने बात
मन को लेकर पहुंचा साथ

ऐसे कुछ बदले हालात
उमड़ी आनंद की बरसात

कृपा मनोहर, करूणा सागर
सुख ऐसा देते अपना कर

गूंगे के गुड़ स्वाद सरीखा
सुना नहीं पाऊँ मैं गाकर

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ जुलाई १० रचित
३१ अक्टूबर २०१० लोकार्पित

Saturday, October 30, 2010

जब जब तुम ओझल हो जाते नयनों से

 
अमृत पथ पर मुझे चलाना श्याम मेरे
बाधाएँ सब पार कराना, श्याम मेरे

ये प्रमाद जो जकड रहा मुझको आकर
इसके चंगुल से छुड़वाना श्याम मेरे

माखन खाने लायक मन हो साथ सदा
दोष दृष्टि से मुझे बचाना श्याम मेरे

जब जब तुम ओझल हो जाते नयनों से
तब भी अनुभूति पथ आना श्याम मेरे

नित्य तुम्हारा ध्यान धरे की चाहत हो
इस चाहत को पूर्ण कराना श्याम मेरे


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ सितम्बर २०१० को रचित
३० अक्टूबर २०१० को लोकार्पित

Friday, October 29, 2010

यादों का श्रृंगार

 
अनुभव तेरे प्रेम का
मिल जाए एक बार
प्रेममयी लगने लगे
फिर सारा संसार

मनमोहन की बात से
बहती है रसधार
एक सांवरा कर रहा
यादों का श्रृंगार

अपने मन की बात से
नहीं मिलेगा चैन
मनमोहन का साथ ही
शांत करे दिन-रैन

अशोक व्यास
५ जुलाई २०१० को लिखी
२९ अक्टूबर २०१० को लोकार्पित

Thursday, October 28, 2010

कान्हा भटकन दूर भगाता

 
 
 
 
घर का रास्ता भूल ना जाना भैय्या जी
बात देखती होगी घर पर मैय्या जी
कान्हा की तो आदत है, छल कर देगा
छल के बाहर ले आयेगी गैय्याजी


घर का रास्ता याद दिलाता
कान्हा भटकन दूर भगाता
जन्म जन्म से ढूंढें जिसको
चुटकी भर में वो ले आता


श्याम सुन्दर के साथ डगर पर
चलता जाऊं मौज में भर कर
जहां चलाये, चलता जाऊं
साँसों में श्रद्धा स्वर भर कर

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ जुलाई १० की लिखिए कविता
२८ अक्टूबर २०१० को लोकार्पित

Wednesday, October 27, 2010

तुम पास होकर भी.....

 
कृष्ण
क्या तुम अब भी वृन्दावन में रास रचाते हो
कृष्ण
तुम एक साथ, कई युगों को कैसे अपनाते हो
कृष्ण
ये कैसे होता है कि  एक ही समय में तुम
अलग-अलग भक्तो को अलग-अलग लीलाएं दिखाते हो
कृष्ण
क्यूं होता है ऐसा कि तुम पास होकर भी
हमें पहचानने में नहीं आते हो
कृष्ण
क्या ये हमारी ही दृष्टि की गलती है या
तुम ही किसी कारण से अपने आपको छुपाते हो?
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका




Monday, October 25, 2010

मगन अपनी पूर्णता मैं

                 (चित्र- ललित शाह)
 
सुनो कृष्ण
अब जान गयी हूँ
मुझसे मिलने 
नहीं आओगे तुम कभी
सब सखियाँ
बहलाती रही हैं मेरा मन
दे देकर झूठे आश्वासन
तुम्हारे मिलन की मधुरिमा वाली कथाएं
सुना सुना कर
मेरे पत्थर होते दिल को
फिर से पिघला कर
चांदनी में बहती नदी का रूप देकर
अब
जब विरह की कंदराओं में
एकाकी भटकने लगा है मन

ओ कृष्ण
ये क्या
तुम्हारे ना होने पर भी
लगता है
मेरी गति ही नहीं
मेरा रूप भी तुम हो
सुनो कृष्ण
मैं नहीं हूँ
तुम ही तुम हो
फिर क्या फर्क पड़ता है इससे
कि तुम आओ या ना आओ

सोच कर 
मुस्कुरा उठी हूँ
मगन अपनी पूर्णता मैं
वैसे
जान गयी हूँ
मुझसे मिलने
तुम नहीं आओगे कभी

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका