Monday, September 5, 2011

यह वैभव अपरम्पार


इतने सारे सवाल
जैसे कोई जाल
कुछ ऐसी है
समय की चाल
सन्दर्भों के सूराख
बना देते जंजाल


हर जाल को निकाल
 चेतना की दिव्य उछाल 
आनंद उंडेल कर
शुद्ध बना करती निहाल


यह वैभव अपरम्पार
नित्य आलोक का श्रृंगार
समर्पण का उपहार
सुलभ सीमातीत प्यार


   चलो हर लें यह थकन
 मिटा दें हर शिकन 
   अच्युत का संग जगाएं
  कर लें सतत सुमिरन 

अशोक व्यास
 अप्रैल २००८ को लिखी
 ५ सितम्बर २०११ को लोकार्पित
        

1 comment:

Rakesh Kumar said...

चलो हर लें यह थकन
मिटा दें हर शिकन
अच्युत का संग जगाएं
कर लें सतत सुमिरन

सतत सुमिरन जीवन का आधार बन जाये,
तो जीवन की नैय्या ही पार हो जाये.

राम सुमिर् राम सुमिर् राम सुमिर् बाबरे
घोर भव, नीर निधि,नाम निज नाव रे.

सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार,अशोक भाई.