Thursday, September 8, 2011

समर्पण


मैं 
कान्हा के नाम से
  हर दिन नई खिड़की
खोलता
अपने अन्दर,
वह
वातावरण जगाता,
जिससे हर तरफ
मुखरित 
समर्पण स्वर,

 पर ये 'मैं', जहाँ से
शुरू होती है बात
 हर दिन
 रह ही जाता है साथ 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३१ जनवरी 2006 

1 comment:

Rakesh Kumar said...

सर राखे सर जात है ,सर काटे सर होत
जैसे बाती दीप की , जले उजालो होत

यूँ ही 'मैं' गलता रहेगा,और अंदर-बाहर
उजियारा होता रहेगा.और फिर जो बचेगा
वह 'मै' नहीं 'तू' ही होगा.

अशोक जी,आपकी प्रस्तुति 'शोक' हरण
कर मन प्रसन्न कर देती है.

आभार.