घुटा है मौन में
जैसे कोई संताप पिछला
नहीं कान्हा की बंशी
ना कोई पदचाप
या तितली
ये चुप्पी
काटती है
इस तरह
रह रह के
जाने क्यूं?
कहाँ वो पेड़
जिसकी छाँव में
बैठे कभी कान्हा
कही बातें
उड़ाया माल संग गोपों के
छक कर के,
वो मक्खन से भरी बातें
हंसी
उल्लास
और वो प्रेम
जिससे सब निखरता था
वो सूरज साथ ले
कान्हा कहाँ जाकर छुपे हो तुम ?
मेरे पांवों में कांटे
हाथ में सूखे हुए पत्ते
ये आंसू
मिल रहे
जाकर जो
वृन्दावन की माटी से
कहीं तुम
भीगते होगे
लगे है क्यूं मुझे ऐसा,
लो
अंगड़ाई तुम्हारी याद ने
ऐसे भरी मुझमें
ये क्या जादू है कान्हा
फिर नया मौसम उतरता है
नहीं आभार
ना इस बार हो
कोई शिकायत भी
तुम ही हो
बस तुम ही हो
ये परिचय मेरी पूंजी है
इसे छीने अगर कोई
तुम्ही मुझको बचाना मेरे गिरिधारी
सुरक्षा तुमसे माँगी है
तुम्हे सुमिरन से बाँधा है
बंधे रहना तुम्हे भाता नहीं
पर खेल मुक्ति क
तुम्हारा ही बनाया है
तुम्हें बंधने की चाहत गर नो होती
प्यारे कान्हा जी
तो मुझको क्यूं बनाते
क्यूं सजाते सारी सृष्टि तुम?
अशोक व्यास
मयी १४, २००४ को लिखी
९ जुलाई २०१० को लोकार्पित
3 comments:
khg jane khg ki bhasha.....behtreen.... mann ke bhawon ki abhiwyakti...
सुन्दर रचना।
बहुत सुन्दर भाव!
जब चारों तरफ़ अंधियारा हो आशा का दूर किनारा हो।
जब कोई ना खेवन हारा हो तब तू ही बेड़ा पार करे॥
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