Sunday, July 11, 2010

बिना कृपा के द्वैत सताए


मुझसे बाहर किसे निकालूँ
मेरे बाहर भी मैं ही हूँ
यह अपनेपन की अनुभूति ठहर ना पाए
बिना कृपा के द्वैत सताए

सबमें मैं हूँ
सबसे मैं हूँ 

मगर क्रिया संग बंध कर जितना
खंडित रूप उभरता मेरा
उससे बंध कर
छूट ही जाता
बोध मेरे व्यापक होने का

सब अपनाऊँ
पर ना अपना मर्म भुलाऊँ 
रस ऐसा पाने 
कान्हा के द्वारे जाऊं
 
अशोक व्यास 
१५ मई २००४ को लिखी
११ जुलाई २०१० को लोकार्पित


 

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