(ये कविता २ दिसंबर १९९४ की लिखी है
संबोधित तो विराट को ही है
विराट रूप दिखाने वाले श्री कृष्ण के नाम ही है
पर एक बार पढ़ कर समझ नहीं आयी
दो-तीन बार पढी तब कुछ टिमटिमाया
हो सकता है, आपके लिए पहली बार में कुछ खुल जाए
हो सकता है कुछ ना खुले
पर इस ब्लॉग रूपी सत्संग में
पधारने, पढने और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करने वाले
सभी आत्मीयों का आभार व्यक्त करने के साथ साथ
अनौपचारिक रूप से आज
शुभ कामनाएं प्रेषित करने का मन हुआ
विशेष रूप से रविकांतजी, प्रार्थना जी, वंदना जी, सुशील कान्तजी, आचार्य उदय जी
और उड़न तश्तरी ब्लॉग वाले 'समीर लाल' जी के प्रति विशेष आभार
मंगल हो, कल्याण हो, उत्थान हो
कान्हा की कृपा से पावन प्रेम रस में नित्य स्नान हो
पुनः पुनः धन्यवाद- अशोक व्यास )
लौटाना
स्मृति से
तुम्हारा कहा
नया नहीं करता मुझे
कहना मेरा नहीं होता ऐसे
यों बोलता बहुत है
पर तुम्हारे कहे की आभा
पपड़ी सी उतर जाती
कुछ समय बाद
इस तरह
अपने पर
झूठा अधिकार सौंप तुम्हें
बासी होते हुए
जुटाना है साहस
सहारा लेने से इनकार करने का
तब ही तो जीऊँगा
जीऊँगा तो जानूंगा
एक है
तुम्हारा कहा
मेरे जीवन से
अशोक व्यास
२ दिसंबर १९९४ की लिखी पंक्तियाँ
१६ जुलाई २०१० को लोकार्पित
1 comment:
व्यास जी, आपकी कृष्ण भक्ति में लिपटी हुई रचनाओं ने ही आपके इस
धन्यबाद के काबिल बनाया वर्ना,
हम तो किसी भी लायक नहीं थे।
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