Saturday, July 17, 2010

ना करूं स्वीकार कोई दीवार


हे प्रभु
छीन लो यह सहायता सूत्र सारे
आने दो मुझे
मेहनत कर कर के
भंवर के पार

ढूँढने दो मुझे
हर बार
नया हल

यह क्या
कि जाना मुझे हो पार
और
और कोई और चलाये पतवार

ढाल नहीं
तलवार बनाना सीखूं
लेकर तुम्हारा नाम

यह क्या कि सुरक्षा में सिमटा
करूं यात्रा
देख ही न पाऊँ संसार
 
हे प्रभु
आने दो शेर के सामने
तब ही जाऊंगा
नहीं हूँ में सियार
होने तो दूं
जितना हो सकता मेरा विस्तार
पार कर थमाए हुए आकार

हे प्रभु
प्रार्थना यही है
ना करूं स्वीकार कोई दीवार
बहूँ निरंतर
बन प्रेम और श्रद्धा की धार 

अशोक व्यास
३ दिसंबर १९९४ को लिखी
१७ जुलाई २०१० को लोकार्पित

2 comments:

vandana gupta said...

वाह ………………गज़ब का चिन्तन्।

Ravi Kant Sharma said...

मेरे सभी शब्द छोटे ही रह जायेंगे, आपके इस चिंतन के सामने!
! जय श्री कृष्णा !