Tuesday, November 16, 2010

दिन और रात सहज ही योग सिखाते हैं

 
रात आती है
विश्रांति की चादर लाती है
सारी क्रियाओं को शिथिल करने की प्रेरणा लाती है
ऊर्जा संचित करने का अवसर खिलाती है

रात में माँ की यह मौन पुकार है
कि अब कर्ममुक्त हो जाने में ही सार है

लाओ अपनी थकान, लो थपकी मुझसे
जिसमें स्फूर्ति का अनुपम उपहार है

फिर जब 
रात की गोद में
विश्रांति के 
सुन्दर मोद में
 
तन-मन सहला दिए जाते हैं 
हम दिन उगने के समीप आते हैं
 
और 
अहा!
सूर्योदय की नित्य नूतन आभा 
उजियारे का अमृत वर्षं,
नए सिरे से प्रफुल्लित, प्रमुदित 
नव आशा का निमंत्रण,
 
दिन क्रिया की सुन्दरता का दिव्य गान है
रात की निष्क्रियता में भी अमृत पिपासा विद्यमान है
 
दिन और रात सहज ही योग सिखाते हैं
हमें सक्रिय-निष्क्रिय लय संग एक कर जाते हैं
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 

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