शब्द मेरी आँख हैं
कान्हा, इनका सहारा लेकर ब्रजवन में
तुम्हें ढूँढने निकलता हूँ
शब्द मेरी लाठी हैं
कान्हा इनका सहारा लेकर ब्रजवन में
तुम्हें ढूँढने निकलता हूँ
कान्हा
तुम ही शब्द हो
२
सांवरा बांसुरी बजा रहा है
गायें तन्मय हो गयी
गोपियाँ रस में डूब गयी
कान्हा के सुन्दर मुखारविंद से झरती आनंद-गंगा में
पत्ता पत्ता स्नान करने लगा
पंछी सौंदर्य बरखा में मगन हो गए
सांवरे की बंशी ने सबका सर्वस्व छीन लिया
बंशी धुन पर चल कर सब श्याम सुन्दर में
सम्माहित हो गए
और
मैं कैसा बावरा हूँ
जस का तस रहा
श्याम को देखा
श्याम की सखियों को देखा
पर अपने आपको नहीं भूल पाया
दृष्टा ही बना रहा
हे नाथ!
मुझे भी तन्मयता का प्रसाद दो
जय श्री कृष्ण !
अशोक व्यास
४ मार्च १९९७ को मुम्बई में लिखी पंक्तियाँ
८ मई २०११ को न्यूयार्क से लोकार्पित
1 comment:
वाह! आनंद आ गया.
आप पर कृपा है कान्हा की.दृष्टा बनना भी प्रभु प्रसाद है.
उसे देख देख तन्मयता न प्राप्त हों ऐसा हों नहीं सकता.आनंदघन है वह.चित चोर है.
मेरे ब्लॉग पर आयें,आपका हार्दिक स्वागत है.
आपके ब्लॉग का फालोअर बन गया हूँ.
आना जाना होता रहेगा.
बहुत बहुत आभार.
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