मन मगन प्रेम में मोहन के
सपने देखे वृन्दावन के
धर दी मुरलिया अधर श्याम
मिट गयी ताप सब जीवन के
हो गए दरस मधुसूदन के
वो नित्य परे है बंधन के
उस चंचल से जीतूँ कैसे
छल करता है अपना बन के
ले चरण चिन्ह यदुनंदन के
हो गए पूर्ण सपने मन के
है सांस सांस में गोप सखा
और शाश्वत पुष्प समर्पण के
अशोक व्यास
१५ जून २००८ को लिखी
२५ मई २०११ को लोकार्पित
1 comment:
अशोक जी आपका प्रेरणा स्रोत अपरम्पार है.
आपका हृदय कमल नित खिल खिल कर
दिव्य सुगंध प्रसारित कर रहा हैं.
'उस चंचल से जीतूं कैसे
छल करता है अपना बन के'
आपकी भाव तरंगें तरंगित कर देतीं हैं मन को.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
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