Monday, May 9, 2011

जिसने कान्हा को देख लिया


पेड़ के नीचे
छन छन कर उतर रही रश्मियों में
न जाने कैसे
मुस्कुराता दिख रहा था कान्हा

कभी लगे
वृक्ष के तने से
गूँज रही बंशी धुन 

कभी लगे
पत्ते पत्ते पर से
टपक रहा है माखन

कभी स्वर्णिम रथ पर सवार
कान्हा हँसते हँसते 
उतर कर रथ से
लुटा रहा था
अपने आभूषण

क्या मैं पागल हो गया हूँ?
मैंने प्रसन्नता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए सोचा

दो गोपियों की खिलखिलाहट के साथ
उनका स्वर सुनाई दिया

'पागलों को ही अपने साथ लेकर चलता है कान्हा
जो कान्हा के लिए पागल नहीं
वो कान्हा को भला क्या देखेगा
और 
जिसने कान्हा को देख लिया
वो पागल हुए बिना कैसे रह सकेगा'
दोनों गोपियों की खिलखिलाहट
और बढ़ गयी
मेरे रोम रोम में
शांति उन्ड़ेलती
रसमय पावनता ने
मुझे वृक्ष के तने के साथ 
एक मेक कर दिया


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
           ९ मई २०११              

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