यह एक द्वार है
मंदिर का
खड़ा यहाँ
भीगे नयनों से
कृष्ण नाम की सुन्दरता में
झूम रहा मन
देख रहा हूँ
शब्दों की वीणा
थामे मैं
उसको सौंप अंगुलियाँ अपनी
अंतर्मन का कण कण देकर
भक्ति भाव धुन
मांग रहा हूँ
सांस लिखे
आभार निरंतर
सुमरिन की रसधार निरंतर
आनंदित अनुनाद
बना मैं
जीता
जीवन सार निरंतर
कृष्ण प्रेम की ज्योति जगाता
प्रभु के चरण रहे नित माथा
है उसका
उपकार निरंतर
जगे भक्ति का
ज्वार निरंतर
कृष्ण नाम से
प्यार निरंतर
प्यार रहे
आधार निरंतर
अशोक व्यास
२७ दिसंबर १९९४ को लिखी
५ अगस्त २०१० को लोकार्पित
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