Tuesday, May 17, 2011

प्रेम गीत बन गाये जीवन

 
प्रेम गीत बन जाए जीवन
सांस सांस सुरभित वृन्दावन
 
सरस सुधा शाश्वत साँसों में
बहूँ लिए निश्छल अपनापन
 
केशव करुण देकर ज्ञानांजन
छुड़ा रहे है सब भव बंधन
 
सब  आचार-विचार कृष्णार्पण
प्रेम गीत बन गाये जीवन
 
१ जून २००८ को लिखी
१७ मई २०११ को लोकार्पित       
   

2 comments:

Rakesh Kumar said...

प्रेम गीत बन जाए जीवन
सांस सांस सुरभित वृन्दावन
सरस सुधा शाश्वत साँसों में
बहूँ लिए निश्छल अपनापन

मुझे आपके भावों में 'निश्छल'अपनेपन का अहसास होता है.जीवन 'प्रेम' गीत बन जाये ऐसा सोच पाना
ही बुद्धिमानी की पराकाष्ठा है.कहा गया है
'ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय.'

Ashok Vyas said...

राकेशजी
अपनेपन का यह भाव उसके संकेतों को देखने के लिए तत्पर मन के लिए सहज है
आप पर प्रभु की बड़ी कृपा है
जो बातें हमें अच्छी लगती हैंउनमें हमारा अंश होता है
प्रभु प्रीती में आपका मन रमा है, ये समर्पण और निर्बाध प्रेम का भाव और गहराए, ऐसी प्रार्थना
अशोक