Wednesday, May 25, 2011

वो नित्य परे है बंधन के


मन मगन प्रेम में मोहन के
सपने देखे वृन्दावन के
धर दी मुरलिया अधर श्याम
मिट गयी ताप सब जीवन के
हो गए दरस मधुसूदन के
वो नित्य परे है बंधन के
उस चंचल से जीतूँ कैसे
छल करता है अपना बन के
ले चरण चिन्ह यदुनंदन के
हो गए पूर्ण सपने मन के
है सांस सांस में गोप सखा
और शाश्वत पुष्प समर्पण के
अशोक व्यास
१५ जून २००८ को लिखी
२५ मई २०११ को लोकार्पित  

1 comment:

Rakesh Kumar said...

अशोक जी आपका प्रेरणा स्रोत अपरम्पार है.
आपका हृदय कमल नित खिल खिल कर
दिव्य सुगंध प्रसारित कर रहा हैं.
'उस चंचल से जीतूं कैसे
छल करता है अपना बन के'
आपकी भाव तरंगें तरंगित कर देतीं हैं मन को.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.