Monday, April 26, 2010

गोपसखा चल रहे उछल कर


उतर रहा आनंद अनूठा
मद्धम स्वर में चहके कोयल

प्रेम पराग भरे मधुकर अब
गुंजन करते पावन शीतल
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इस पथ कान्हा की आवन है
धूल दिव्य, उज्जवल सबका मन

कान्हा के दरसन की महिमा
कह ना सके जग का सारा धन
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अब उल्लास अपार लुटाते
गोपसखा चल रहे उछल कर

कान्हा कृपा कटाक्ष करूण यह
बल देती अद्भुत निर्बल कर 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ अगस्त २००५ को लिखी
२६ अप्रैल २०१० को लोकार्पित

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