(कुछ बरस पहले लिखे गए शब्द, लिखते समय जिस अनुभूति का स्पर्श करवा गए
उसकी महिमा को किसी दूसरे तक बांटने में संकोच होता है
पर इस भाव के साथ प्रस्तुत हैं ये पंक्तियाँ कि 'अन्य' कोई है ही नहीं
पढ़ने और लिखने वाला 'एक' ही है और अभिव्यक्ति उसी 'एक' के होने का उत्सव मात्र है)
मन शांत
कान्हा की सन्निद्धि
चहुँ ओर उसी की शक्ति
माँ के रूप में शक्ति
माँ के भीतर बालकृष्ण
बालकृष्ण की लीला से जगत
जगत में एकता
ऐक्य का प्रसरण
मैं - मधुर मौन
मुझमें लीलते जाते हिंसा, द्वेष और
अत्याचार के सारे कृत्य
पचा कर विष
प्रयोग करवाने अमृत का
शिवरूप प्रकट मुझमें
मैं यह नहीं
जो भासित है
मैं वह जो
देखे से परे
पर दिखे सब ओर
मैं
जो अनवरत सृजनशीलता
मुझमें सृष्टि
मुझसे सृष्टि
काल की ताल से परे
मृत्यु के भौन्चाल से परे
मैं ज्ञान का अमृत सिन्धु
आनंद का अबाध प्रवाह
लेकर अमोघ शांति
और छलछलाता अक्षय प्रेम
आलिंगन बद्ध कर रहा
सृष्टि सारी
अशोक व्यास
३० जुलाई २००५ को लिखी
२० अप्रैल २०१० को लोकार्पित
3 comments:
bahut sundar rachana
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
kanaha premi hi aisa likh sakta hai,prem mahsus kiya jata hai...
अशोक जी, आपकी श्री कृष्ण की भक्ति को शत्-शत् प्रणाम!
सत्य यही है कि वह तो कण-कण में स्थित हुए भी मन बुद्धि से परे है!
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