(चित्र- ललित शाह) |
उतरने दो शब्द
उजाला
गाओ
आनंद रस
फूटे
अनंत
गाये
रोम रोम से
मधुर मानस
सुमिरन ज्योत्सना
में आल्हादित
बहे समीर
एक वह
खिले क्षण क्षण
खिलता जाए
पल प्रति पल
सुनूं चेतना से उसे
प्राण है
मौन जिसका
जीवन जिसके शब्द
उस आनंद का रास
नृत्य करूँ में भी
वह होकर
शांत सरल
सरस
एक आलाप
ॐ
एकत्व
विस्तार
अपने पार
घुला सब में
मंगल स्वरुप
इसको छू लूं
मैं को भूलूँ
अशोक व्यास
१ फरवरी १९९५ को लिखी कविता
आज १८ अगस्त २०१० को लोकार्पित करते हुए बहुत रसीली लगी
अहा!
2 comments:
वास्तव मे ही एक रसीली रचना है| धन्यवाद्|
जय श्री कृष्णा !
Post a Comment