(चित्र- ललित शाह) |
सुनो कृष्ण
अब जान गयी हूँ
मुझसे मिलने
नहीं आओगे तुम कभी
सब सखियाँ
बहलाती रही हैं मेरा मन
दे देकर झूठे आश्वासन
तुम्हारे मिलन की मधुरिमा वाली कथाएं
सुना सुना कर
मेरे पत्थर होते दिल को
फिर से पिघला कर
चांदनी में बहती नदी का रूप देकर
अब
जब विरह की कंदराओं में
एकाकी भटकने लगा है मन
ओ कृष्ण
ये क्या
तुम्हारे ना होने पर भी
लगता है
मेरी गति ही नहीं
मेरा रूप भी तुम हो
सुनो कृष्ण
मैं नहीं हूँ
तुम ही तुम हो
फिर क्या फर्क पड़ता है इससे
कि तुम आओ या ना आओ
सोच कर
मुस्कुरा उठी हूँ
मगन अपनी पूर्णता मैं
वैसे
जान गयी हूँ
मुझसे मिलने
तुम नहीं आओगे कभी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
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