अमृत का आभास दिलाता है सुमिरन
मन का हर एक पथ हो जाता है पावन
कृष्ण सखा बंशी लेकर आया ब्रज वन
घेर खड़े हैं गोप सखा, हुए कर्ण नयन
निर्मल, निर्मल, अति निर्मल, हो शुद्ध रे मन
कृष्ण प्रेम का तब ही तो उमड़े सावन
रे मन चंचल
तज कोलाहल
पा ले सुख सब
कर प्रेम सरल
तेरे पथ में कभी ना कोई बाधा रे
संग तेरे तो स्वयं कृष्ण और राधा रे
सत्य अंश बिसरा कर कैसे चैन मिले
श्याम दरस करने को ही तो नैन मिले
गा ले गा ले कृष्ण कन्हाई
मिटे कामना की परछाई
कृष्ण छवि में रम कर भाई
और ना कुछ बाकी रह जाई
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ जुलाई १९९८ को लिखी
७ फरवरी २०११ को लोकार्पित
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