जब ये जाना
बात तुम्हारे
समझ गया हूँ
छोड़ गए तुम
बीच भंवर में
साथ चुनौती छोड़ नयी एक
फिर जब माना
समझ मेरी
बिन कृपा तुम्हारी
मुक्त नहीं
कुछ सार सुधा बन कर
बह पाने
तब तुम
ऐसे मुस्काए
कि जैसे है ही नहीं
अस्तित्व भंवर का
और हुआ क्या
लुप्त भंवर है
गति हंस सी
बनी सहचरी
सोच रहा हूँ
मुक्ति का यह
स्वाद अनूठा
खेल तुम्हारा
कितना सुन्दर
अशोक व्यास
अमेरिका
शनिवार, २६ फरवरी 2011
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