जय श्री कृष्ण
(कविता नहीं, संवाद श्याम से)
मैंने कहा
समर्पित हूँ
ले लो मुझे
उसकी मुस्कान ने कहा
बिखरे बिखरे हो
पहले गूँथ जाओ
गुलदस्ता बनो
मेरी मुस्कान में घुलने लायक बनो
पर कैसे?
कैसे?
कैसे?
मैं बिखराव की आंधी में से चिल्लाया
कैसे गुंथ जाऊं
कहाँ से पाऊँ एकात्मकता
कैसे सहेजूँ खुदको
नहीं होता ना कुछ
बार बार यह अस्त-व्यस्त फैलाव
बार बार टुकड़े टुकड़े होकर
ऐसे निस्तेज
जैसे हर खंड अपने आप में
अलग, अर्थहीन सा
हे प्रभु
क्या कोई तरीका नहीं
तुम्हारे लायक बनने का
मैं तो हार गया ठाकुर
क्या यहीं खंड-खंड पडा
तुमसे दूर
तुमसे अलग
नष्ट हो जाऊंगा मैं
हे प्रभु
करूणामय हो
कृपा करो
प्रभु मुस्कुरा का बोले
'तरीका बताऊँ
बड़ा आसां है
इसलिए तुम उसे अनदेखा
कर देते हो
अभ्यास करते करते अनायास
अविश्वास से छोड़ देते हो
प्रभु मौन हो गये
मेरी आँखों में प्रश्न बाकी था
प्रभु बोले
"देखो
मेरा ध्यान धरो
मेरा ध्यान धरो
सचमुच मैं लक्ष्य हूँ
ऐसा मनो
ऐसा पहचानो
तो इस भाव की तरंग में
वह ऊर्जा होगी
जो तुम्हें समन्वित कर देगी
सहज ही
सरस हो जाओगे
मुझसे ध्यान हटा
तो खंडित,
मुझमें ध्यान लगा
तो अखंड-
समझे!"
"पर क्या मैं कर पाऊंगा ऐसा?"
"सच बताऊँ
तुम सिर्फ ऐसा ही कर पाओगे
और कुछ नहीं कर पाओगे
क्योंकी ये ही तुम्हारा मूल स्वाभाव है
मैं तुम्हें ऐसा ही बनाया है"
और ईश्वर ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ जुलाई १९९८ को लिखी
१५ फरवरी २०११ को ईश्वरार्पण
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