Saturday, February 12, 2011

सर्वत्र मोहन ही मोहन है


एक यह कोरा पल
धो पोंछ कर
कान्हा की चरण रज से
छुआने
रख छोड़ा है
उस पगडण्डी पर
जहाँ से होना है
आगमन गोपाल का

एक यह महीन सी सांस
श्रद्धा के आलोक में
नहला कर
रख छोड़ी है
कान्हा के चिंतन में

अपनी सम्पूर्ण इयत्ता से
अब खुल गया हूँ
श्याम की सघन उपस्थिति 
को अपना लेने

अब जब
मेरे लिए
सर्वत्र मोहन ही मोहन है
मेरे छूटने का स्वर
घुला मौन में
मिट रहा है 
भेद बिंदु और सिन्धु का

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ फरवरी २०११

 

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