एक यह कोरा पल
धो पोंछ कर
कान्हा की चरण रज से
छुआने
रख छोड़ा है
उस पगडण्डी पर
जहाँ से होना है
आगमन गोपाल का
एक यह महीन सी सांस
श्रद्धा के आलोक में
नहला कर
रख छोड़ी है
कान्हा के चिंतन में
अपनी सम्पूर्ण इयत्ता से
अब खुल गया हूँ
श्याम की सघन उपस्थिति
को अपना लेने
अब जब
मेरे लिए
सर्वत्र मोहन ही मोहन है
मेरे छूटने का स्वर
घुला मौन में
मिट रहा है
भेद बिंदु और सिन्धु का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ फरवरी २०११
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