Monday, December 27, 2010

मन को इतना भाये कान्हा

 
आनंद रस बरसाए कान्हा
प्रेम मुदित मन गाये कान्हा

स्वांग रचा कर तरह तरह के
भक्तन को अपनाए कान्हा

छोड़ जगत उसकी धुन रमता
मन को इतना भाये कान्हा

हुई चेतना स्वर्णिम, सुन्दर
कण कण सार जगाये कान्हा

अशोक व्यास
१४ जनवरी २०१० को लिखी
२७ दिसंबर २०१० को लोकार्पित

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