आनंद रस बरसाए कान्हा
प्रेम मुदित मन गाये कान्हा
स्वांग रचा कर तरह तरह के
भक्तन को अपनाए कान्हा
छोड़ जगत उसकी धुन रमता
मन को इतना भाये कान्हा
हुई चेतना स्वर्णिम, सुन्दर
कण कण सार जगाये कान्हा
अशोक व्यास
१४ जनवरी २०१० को लिखी
२७ दिसंबर २०१० को लोकार्पित
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