चेतना की इस नदी में
बह रहे
कितने किनारे टूट कर
हो सभी में
श्याम घन तुम
पर तुम्हारी वो छवि
माधुर्य और विस्तार वाली
वो कि
जिससे आये सब
जिसमें घुलेंगे
या घुले हैं
आज इस क्षण भी
चेतना तुम
यह नदी
इसकी गति तुम
भंवर रचता
छल तुम्हारा
जैसे गैय्या
जीभ से स्पर्श रचती
अपना बछडा चाटती हो
अहा यह क्षण
ना इसके आगे कुछ
ना इसके पीछे कुछ
अशोक व्यास
३ फरवरी २०११
2 comments:
बहुत सुंदर
बहुत सुंदर
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