Thursday, February 3, 2011

चेतना की इस नदी में


चेतना की इस नदी में
बह रहे
कितने किनारे टूट कर

हो सभी में
श्याम घन तुम
पर तुम्हारी वो छवि
माधुर्य और विस्तार वाली

वो कि
जिससे आये सब
जिसमें घुलेंगे
या घुले हैं
आज इस क्षण भी

चेतना तुम
यह नदी
इसकी गति तुम

भंवर रचता
छल तुम्हारा
जैसे गैय्या
जीभ से स्पर्श रचती
अपना बछडा चाटती हो

अहा यह क्षण
ना इसके आगे कुछ
ना इसके पीछे कुछ

अशोक व्यास
३ फरवरी २०११

2 comments:

sunil purohit said...

बहुत सुंदर

sunil purohit said...

बहुत सुंदर