सच्चा- झूठा
जैसा भी है
मन का खेल निराला है
कभी
कंस सा दिखता है ये
कभी बने नंदलाला है
रात अंधेरी
जंगल गहरा
पर चलता मतवाला है
किसने जाना
अहसासों पर
कौन लगाए ताला है
छप्पर टूटा
पंख लहू में
दरवाज़े पर ताला है
उजियारे की
बातें करता
मन पर कितना काला है
छोटे छोटे
पाँव चुराने
लम्बे रस्ते पार करे
बहुत बावरा
ना पहचाने
कब क्यों किससे प्यार करे
ठहरा ठहरा
अपने ही से
ये कितनी तकरार करे
छुपा छुपा कर
रखे बदन को
चुप चुप बहुत पुकार करे
अशोक व्यास
६ अप्रैल १९९७ को लिखी
२० फरवरी २०११ को उजागर
2 comments:
वाह! बहुत सुन्दर रचना!
dhanywaad Nileshji
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