Saturday, September 25, 2010

एक-एक शब्द में कान्हा है

मंगलवार
मई ८, २००७

जय श्री कृष्ण
कान्हा ने आते ही मटकी उठा कर उसमें झांकते हुए
मुझसे पूछा
"कहाँ है शब्दों का माखन, जब तुम बिलोते हो
तो मुझे बड़ा स्वाद लगता है'
मैं तो एकदम ठिठक गया
शब्दों का उतरना बन्द नहीं पर बहुत मद्धम हो गया था,
शब्द मथने की पात्रता भी क्षीण थी,
विचार- भाव-चिंतन, सबकी लौ धीमी थी

कान्हा का आगमन भी अपेक्षित ना था
यूं लग रहा था संसार ने मुझे एकाकी छोड़ दिया है,
कान्हा की आव-भगत का उत्साह और तैय्यारी भी ना थे 
पर कान्हा आ गया है
उसे तो सब मालूम ही होगा
एक क्षण में कई विचार मन से तीर की तरह निकले
तत्काल स्फूर्तीमान हो कान्हा के लिए जल ले आया
पिछवाड़े में एक पुष्प का पौधा था
तुरंत एक पुष्प लाकर कान्हा के हाथ में थमाया
रसमयता का संचार हुआ
तो शब्द वीणा लेकर बैठ गया
कान्हा मुस्कुराते हुए मरी ओर देखने लगा
तो वीणा से कुछ धुन फूटने लगी
हाथ चलने लगे,
नयनों से प्रेमाश्रु छलके 
भाव में अमृत-सरिता प्रकट हो कान्हा के चरणों की
ओर प्रवाहित होने लगी
मुस्कुराते हुए कान्हा ने
बंशी को अपने अधरों से लगा लिया
शब्द वीणा के साथ मुरली की धुन का संगम
अपार-सौंदर्य प्रकट कर रहा था
एक क्षण वो आया,
जब शुद्ध उजाले में एकमेक मैं ने
इस अनुभूति में स्वयं को
विलीन होते पाया 
जिसमें शब्द वीणा, मैं, कान्हा और
कान्हा की मुरली सब एक हो गए थे
कान्हा की करूणामय मुस्कान में आश्वस्ति का
अक्षय स्त्रोत था
आत्मीयता की पावन ऊष्मा से तृप्त हुए मन के सौभाग्य का बखान कौन करे
अद्वितीय संगीत लहरे थमी
तो शब्द वीणा कान्हा के चरणों पर धर कर साष्टांग दंडवत किया
कान्हा ने अपने कर से उसका स्पर्श कर कहा
इसे अपने पास रखो
इसमें छुप कर मैं भी तुम्हारे साथ बना रहूँगा
एक-एक शब्द में कान्हा है
एक-एक शब्द में सांस है
एक-एक सांस में कान्हा है
कान्हा ने मुझे जीवन दिया है
और सारा जीवन उसे सौंप कर मैं कान्हा को जी रहा हूँ
जय श्री कृष्ण
ॐ आनंद


लोकार्पण तिथि- सितम्बर २५, २०१०

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