Tuesday, June 29, 2010

कान्हा संग नहीं है वैसे


जगमग जाग्रत
ताल तलैय्या
करो स्नान
धो लो हर कल्मष,
दिव्य सुधा रस
पी पी
जी लो
छूटे आपा-धापी बरबस


उसके नयनों में
फिर देखा
धरा स्वयं को सम्मुख उसके
हाथ थाम कर
लिए चला वह
बोला बीती धरा बिसारो
भागो संग-संग मेरे ऐसे
नृत्य बने
उल्लास जगाता
हर पग 

 बन कर हँस 
चुगेंगे
नित्य सुनहरी आभा वाली
अनुभूति के सुन्दर मोती


भाग भाग
संग कृष्ण सखा के
जगा पुनः उल्लास अनछुआ

सुन्दरता में निखरा मन ले
सहसा बोध हुआ कि
कान्हा संग नहीं है वैसे
जैसे था, जब साथ भगा था मेरे

नभ में है
है शांत पवन में
साँसों में है
है कण कण में
बैठ गया चुपचाप
मौन में 
भय की एक किरण 
यूँ बोली
छूट गया क्या
वह सब
जिससे भाग रहा था

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० अप्रैल २००४ को लिखी पंक्तियाँ
२९ जून २०१० को लोकार्पित

1 comment:

आचार्य उदय said...

सुन्दर लेखन।