Tuesday, June 22, 2010

छलकाए प्रीत की मधुशाला


मन अनुभव आंगन खेल खेल
करे श्याम सुन्दर से नित्य मेल

आनंद परम अब छाया है
करबद्ध खड़ी अब माया है
अब रोम-रोम में, कण-कण में
दरसन विराट का पाया है

जय जय गोविन्द, गोपाल हरी
प्रभु मूरत, तन मन में उतरी
मन मोहन रंग तरंग लिए
हो गयी दिव्य, सारी नगरी

वो नटवर नागर, नंदलाला
छलकाए प्रीत की मधुशाला
नयनों से जब मुस्काये है
करे तृप्त, बना दे मतवाला


अशोक व्यास
माय ६, २००९ को लिखी
२१ जून २०१० को लोकार्पित

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