Monday, June 28, 2010

उसका दरसन करे समन्वित


यह उल्लास अनूठा उतरे
छम छम
सरगम 
प्रेम पगी यह
सुने सांवरा
मेरा होना सफल हो रहा
अब यह बात
नया उजियारा
लिए चली है
दिशा दिशा में
हँस हँस खोले
सुन्दरतम के 
चिन्ह अनछुए
लो तुम ले लो
इस क्षण में 
वह
जिसको छूकर
जागे जीवन
हर एक ध्वनि में
गुंथा हुआ जो
मुक्त अलौकिक

उसका दरसन
करे समन्वित

सार छलक कर
चिर आनंदित 
मुझे बनाए

पहुँच क्षितिज तक
अपनापन ले

खरा प्रेम बन कर प्यारे
तू जब बह जाए
गगन धरा से मिलने तब
खुद ही झुक आये 


अशोक व्यास 
अप्रैल २७, २००४ को लिखी 
२८ जून २०१० को लोकार्पित 

1 comment:

माधव( Madhav) said...

बहुत सुन्दर कविता , मजा आ गया पढ़कर