चल निकल, निकल चल, चल रे चल
सुन प्रेम नदी बहती कल कल
अरे बीत रहा यूँ पल पल पल
कान्हा ना हो जाए ओझल
सब जाने हैं, वो है चंचल
करता उसका सुमिरन निर्मल
यह लीपा-पाती छोड़, ना सज
भाये कान्हा को मन निश्छल
चल निकल, बुलाये बंशी धुन
जो सुन्दरतम है उसको चुन
चल गुणातीत तक जाना है
क्यूं देखे अपने गुण-अवगुण
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ नवम्बर २००७ को लिखी
२० जून २०१० को लोकार्पित
No comments:
Post a Comment