Thursday, April 21, 2011

कान्हा छलिया बहुत बड़ा है


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चल चल रे कान्हा के द्वारे
उस माखन का स्वाद पुकारे
जिसको कान्हा ने छू कर से
प्रेम सहित कल हमें दिया रे


चल चल खेले नंदलाल संग
नाचें उसकी प्रेम ताल संग
और कोइ रंग मन ना चाहे
 ल भीगें फिर कान्हा के रंग


कान्हा छलिया बहुत बड़ा है
लो अपने संग आन खड़ा है
मुकुट मोर का ऐसे रखता
जैसे इस पर रतन जड़ा है


कान्हा की मुस्कान अमोल
छोड़ छाड़ कर सारे बोल
 निरखें बस अच्युत आभा को
जो मन मिसरी देती घोल
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ अप्रैल २०११  

  
    

 
   

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