कान्हा कदम्ब वृक्ष पर चढ़ कर
जब
देखते थे
शरारत छोड़ कर
शांत मुद्रा में
तब भी
हम नहीं समझ पाते थे
की वो उतने ही नहीं
जितने दीखते हैं
हां! सुदर हैं
अच्छे लगते हैं
विनोद भी करते हैं
पीड़ा भी हरते हैं
अग्नि से बचाया
इन्द्र के कोप से छुड़ाया
और भी वो पहले
पूतना को भी
अतिम सांस तक पहुँचाया
सब कुछ था विशिष्ट कृष्ण के साथ
और वो यसोदा मैय्या को मुख में जगत दिखलाने वाली बात
सब कुछ सुना
पर सुन कर भी ठहरता नहीं था
हम सब
कृष्ण तो 'उतना' ही मान कर
उनके 'अनंत' होने का स्वाद लेने का
अजीब सा खेल खेलते रहे
या शायद
कृष्ण ऐसा ही चाहते थे
शायद खेल हमारा कभी था ही नहीं
खेल सारा का सारा कृष्ण का ही था
ऐसा क्या है कृष्ण
की तुम्हारे बिना किसी खेल में
वो मजा कभी आता ही नहीं
और
तुम्हें बुलावे की इतनी आदत पड़ गयी है
क्या इतना भी अपना नहीं समझते
कभी कभी
बिना बुलावे के भी
आ जाया करो ना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० अप्रैल २०११
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