गोविन्द मेरे प्राण प्यारे
मोहन मेरे, नित्य सहारे
प्रेम का माखन लिए हाथ में
मेरा मन कहता, तू खा रे
जब ऐसा माखन बन पाए
जिसको कान्हा रुच रुच खाए
तब जाकर ऐसा होता है
जीवन धन्य-धन्य हो जाए
सुमिरन की यह तान अनूठी
मिथ्या जग की तन्द्रा टूटी
जिसके आगे शेष नहीं कुछ
मैंने भी वह दौलत लूटी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, १४ अप्रैल 2011
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