आनंदामृत वितरित करता श्याम सखा
दृष्टि मात्र से प्रमुदित करता श्याम सखा
धन्य प्रेम कान्हा का पाकर वनवासी
मध्य क्रिया के लगता चिर विश्राम सखा
अपनी हालत कहूं क्षितिज से ही जाकर
धरा-गगन का मिलन कराये श्याम सखा
अब भी आने वाले, नाव चले आओ
बन बैठा मल्लाह, नाव में श्याम सखा
नदी पर जाने का खेल सुहाता है
वरना दोनों पार बसा बस श्याम सखा
बैठ नाव में, आँख लगी, तो ये देखा
सृष्टि मुझ में करके खेले श्याम सखा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ अप्रैल २००५ को उतरी पंक्तियाँ
१७ मार्च २०१० को लोकार्पित
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