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सेवा ही मेवा, धन्य कृष्णदेवा |
बैठ सखा कान्हा के
खेल रचाए कितने सारे
बार बार मन में जाग्रत हैं
वो क्षण प्यारे प्यारे
कभी गुदगुदी
कभी गलबहि
कभी धौल-धप्पी संग चहके
वृन्दावन के
पत्ते पुलकित
झूम रहे ज्यों, रह रह के
फिर कान्हा ने
अधर बांसुरी
ऐसी तान सुनाई
सकल सृष्टि में
हम सब को
बस कान्हा दिया दिखाई
वही पवन है, वही गगन है,
वही धरा, जल और अगन
श्याम सखा के संग
हो गए, सकल गोपजन, मस्त-मगन
प्रीत श्याम की अमृत अनुपम
उसका सुमिरन, भाव मधुरतम
जय जय जय कान्हा की गाऊं
परमानंद जगाऊँ
उसके लीला रस में खोकर
सारा जग पा जाऊं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ मारी ०५ को लिखी
२२ मार्च २०१० को लोकार्पित
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