अनुपम श्याम स्वरुप है
पर मन तहां ना जाय
वानर बन कूदे बहुत
बड़ी गुलाची खाय
मन सेवा में से दूर हो
श्याम रूप बिसराय
माखन खाए मौज में
जब श्याम नाम गुन गाय
जिस मेले माया मिले
उस मेले रम जाए
मन प्यारा मोहन जहां
वहां पहुँच ना पाए
नयन श्याम के देख कर
सरपट दौड़ा जाऊं
जाय मिलूँ घनश्याम से
कहीं और ना पकड़ा जाऊं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० मई २००५ को लिखी
२९ मार्च २०१० को लोकार्पित
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