Saturday, March 5, 2011

रोम रोम से उसका ही हो जाऊं मैं


शरण श्याम की ही है
फिर ये डर कैसा
भूल हुयी क्या
अहंकार का ज्वर कैसा

चिंता कल की इतनी
खुद पर संशय सा
प्रेम नदी के बीच
 भंवर सा ये कैसा

तन्मय होकर उसकी लीला गाऊँ मैं
रोम रोम से उसका ही हो जाऊं मैं
करुनामय से मिले प्रेम आशीष सदा
सबमें उसके दरस करूँ, अपनाऊँ मैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ जून १९९७ को लिखी
५ मार्च २०११ को लोकार्पित       

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